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________________ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान 203 89. प्रश्न : इस युक्ति से तो चारित्रमोहनीय कर्म से भी दर्शनमोहनीय कर्म हीन शक्तिवाला सिद्ध हो जाता है। उत्तर : हाँ, आपका कहना सही है। यदि दर्शनमोहनीय कर्म चारित्रमोहनीय कर्म से शक्तिहीन नहीं होता तो मुनिराज दर्शनमोहनीय का उपशम या क्षय करके चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय के लिये श्रेणी के काल में कटिबद्ध क्यों और कैसे होते? इसलिए मोक्षमार्गी, साधक, आत्मार्थी जीव जब कर्मों से लड़ना प्रारंभ करता है; तब आठों कर्मों में से मोहनीय कर्म से ही सबसे पहले लड़ना प्रारंभ करता है / मोहनीय कर्मों में भी दर्शनमोहनीय से युद्ध करके उसे ही सबसे पहले पराजित करता है और स्वयं विजयी अर्थात् सम्यक्त्वी होता है। अतः दर्शनमोहनीय कर्म स्वयं शक्तिहीन सिद्ध हो जाता है। सिद्धचक्र विधान की प्रथम जयमाला में इसप्रकार कहा है - 'जयकरण, कृपाण प्रथम सुबार, मिथ्यात्व सुभट कीनो प्रहार।' 90. प्रश्न : करणानुयोग में तो तर्क, हेतु, युक्ति के लिए अवकाश ही नहीं हैं; यहाँ तो जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा ही मुख्य रहती है। आप करणानुयोग के विषय में तर्क का उपयोग क्यों कर रहे हो? उत्तर : करणानुयोग शास्त्र में तर्क नहीं चलता, यह बात सच है; पर समझने-समझाने के लिये आचार्यों ने भी आगम-गर्भित युक्तियों का उपयोग किया है। स्वयं आचार्यों ने युक्ति से अनेक विषय समझाये हैं। आचार्य श्री वीरसेन ने तो करणानुयोग के शास्त्र धवलादि टीका में शंकासमाधान की पद्धति से ही समझाया है। यहाँ भी जो स्पष्टीकरण चल रहा है वह सब आगम की मर्यादा में ही चल रहा है। 91. प्रश्न : आठों कर्मों में मोहनीय कर्म और मोहनीय में भी दर्शनमोहनीय बलवान है; ऐसा कथन शास्त्र में आया है। उसे आप आज्ञा से प्रमाण मानो। उत्तर : हमें शास्त्र का प्रत्येक वाक्य प्रमाण है। मोह और मोह में भी दर्शनमोह कर्म बलवान है; यह सर्व विषय हम शतप्रतिशत स्वीकारते हैं। यहाँ हम इतना मात्र स्पष्ट करना चाहते हैं कि “दर्शनमोहनीय कर्म बलवान
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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