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________________ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान 193 __ उन मुनिराजों के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों के क्षयोपशमानुसार वर्तमान ज्ञान के विकास में परस्पर अंतर भी हो सकता है अर्थात् उनमें कोई दो ज्ञानधारी, कोई तीन ज्ञानधारी अथवा कोई चार ज्ञानधारी भी हो सकते हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व के धारक श्रुतकेवली-रूप महान ज्ञानी अथवा मात्र अष्ट प्रवचनमातृका को जाननेवाले अत्यल्प ज्ञान के धारकपने से अनिवृत्तिकरण के धर्मरूप परिणामों की समानता में कुछ भी भेद या अंतर नहीं होता। __आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 57 में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - होति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं गिद्दड्ढकम्मवणा / / अत्यंत निर्मल ध्यानरूपी अग्नि शिखाओं के द्वारा, कर्म-वन को दग्ध करने में समर्थ, प्रत्येक समय के एक-एक सुनिश्चित वृद्धिंगत वीतराग परिणामों को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते हैं। वृद्धिंगत शुद्धोपयोगरूप ध्यान का प्रारंभ सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से हुआ है। अतः नौवें गुणस्थान में ध्यान अत्यन्त निर्मल होना स्वाभाविक ही है। ___ ध्यान को अग्नि की नहीं, अग्नि-शिखाओं की उपमा दी है, जो अत्यन्त उपयुक्त है। अग्नि में तो उष्णता होती है। लेकिन दाह्य वस्तु को विशेष रीति से जलाने का काम अग्नि की शिखा ही करती है। शिखा अग्नि के मानो हाथ हैं। दाह्य वस्तु को अपने कब्जे में लेने का काम शिखाओं द्वारा ही होता है। तदनंतर दाह्य वस्तु को अग्नि जलाती है। अष्ट कर्मों में मुख्यता से चारित्रमोहनीय कर्म को वन कहा है, जिसको निर्मल ध्यानरूपी अग्निशिखा जलाती है। वास्तव में तो यह मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध की अपेक्षा असद्भूत व्यवहारनय से कथन करने की पद्धति है। सत्य वस्तुस्थिति तो यह है कि जब महामुनिराज अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ के बल से वीतरागभाव को
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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