________________ 192 गुणस्थान विवेचन वीतरागता और अन्य जितने भी नौवें गुणस्थान के प्रथम समयवर्ती मुनिराज हैं - उन सब की वीतरागता समान ही होती है। इसीतरह १०वें, ११वें, १२वें, 13, १४वें गुणस्थानवर्ती साधकों की अपने-अपने गुणस्थानों में वीतरागता, सुख आदि की परस्पर में समानता ही रहती है। इसी विषय का खुलासा धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 187-188 पर निम्नप्रकार दिया है - 26. "शंका - क्षपक का स्वतन्त्र गुणस्थान और उपशम का स्वतन्त्र गुणस्थान, इसतरह अलग-अलग दो गुणस्थान क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान - नहीं; क्योंकि इस गुणस्थान के कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामों की समानता दिखाने के लिये उन दोनों में एकता कही है। अर्थात् उपशमक और क्षपक इन दोनों में अनिवृत्तिरूप परिणामों की अपेक्षा समानता है। कहा भी है - ___ अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरण के काल में से किसी एक समय में रहनेवाले अनेक जीव जिसप्रकार शरीर के आकार, वर्ण आदि रूप से परस्पर भेद को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार जिन परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है, उनको अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहते हैं और उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक से ही (समान विशुद्धि को लिये हुए) परिणाम पाये जाते हैं। तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्म-वन को भस्म करनेवाले होते हैं।" 82. प्रश्न : घाति-अघाति कर्मोदय से औदयिक तथा क्षायोपशमिक भावों में भेद हो सकता है, यह कैसे ? / उत्तर : अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती अनेक मुनिराजों का शरीर छोटा, बड़ा, पतला या मोटा हो सकता है। उन मुनीश्वरों के शरीर का वर्ण काला, गोरा हो सकता है / वे मुनिराज उम्र की दृष्टि से युवा अथवा वृद्ध भी होते हैं। इसतरह औदयिक कार्यों में भेद हो सकता है।