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________________ अप्रमत्तविरत गुणस्थान 3. देशविरति गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज का सीधे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आगमन हो सकता है। 4. प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती भावलिंगी संतों का आगमन सातवें अप्रमत्तसंयत में तो हमेशा होता ही है। ___5. उपशमश्रेणी से नीचे की ओर पतन करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थान से अप्रमत्तसंयत में आना होता है। विशेष अपेक्षा विचार - सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान में चार आवश्यक कार्य होते हैं। 1. समय-समय प्रति आत्मा में अनंतगुणी विशुद्धि होती रहती है। पहले समय में जितनी मात्रा में विशुद्धि है, उससे अनंतगुणी नयी विशिष्ट विशुद्धि दूसरे समय में हो जाती है। दूसरे समय की वीतरागता से तीसरे समय की वीतरागता अनंतगुणी बढ़ती है; ऐसा क्रम अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत लगातार चलता रहता है। ' विशुद्धि में वृद्धिंगत वीतराग परिणाम और घटता हुआ कषाय का अंश - दोनों गर्भित हैं; इसे मिश्रधारा भी कहते हैं। जैसे - किसी आदमी को आज पहले दिन दस रुपये का लाभ हुआ है। वह दस रुपयों का लाभ प्रत्येक दिन दस गुणा बढ़ता रहता है तो उसे सातवें दिन कितना लाभ होता है, इसका निर्णय कर लेते हैं। इसी से वीतरागता में अनंतगुणी वृद्धि का अनुमान हो जाता है। (1) पहले दिन का लाभ मात्र दस रुपया का है। (2) दूसरे दिन का लाभ दसगुणा अर्थात् 10 x 10 = 100 रुपये। (3) तीसरे दिन का लाभ 100 x 10 = 1000 रुपये। (4) चौथे दिन का लाभ 1000 x 10 = 10000 रुपये। (5) पाँचवें दिन का लाभ 10000 x 10 = 100000 रुपये। (6) छठवें दिन का लाभ 1 लाख x 10 = 10 लाख रुपये। (7) सातवें दिन का लाभ 10 लाख x 10 = 1 करोड़ रुपये। व्यापार में यदि किसी को रोज दस गुणा लाभ होता है तो उस व्यापारी को सातवें दिन ही 1 करोड़ रुपयों का लाभ हो जाता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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