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________________ 166 गुणस्थान विवेचन कार्यों को करना प्रमाद या आत्मा की असावधानता अथवा मुनिजीवन का अनुत्तम कार्य है, ऐसा कथन केवली भगवान करते हैं। ___मुनिपना ही अलौकिक तथा अनुपम दशा है। यही दशा साक्षात् भगवान होने का सच्चा एकमात्र उपाय है। साधु हुआ तो सिद्ध हुआ करनी रही न कोय यह अभिप्राय सत्य है। साधु अर्थात् दिगम्बर मुनि हैं तो मनुष्य-गति के जीव; लेकिन वास्तव में वे चलते-फिरते सिद्ध भगवान ही हैं; क्योंकि मुनिजीवन सिद्धदशारूपी पर्वत की तलहटी ही है। जैसे सिद्ध भगवान साक्षात् ज्ञाता-दृष्टा हो गये हैं; वैसे ही दिगम्बर भावलिंगी संत भी अपनी भूमिका के अनुसार ज्ञाता-दृष्टा ही रहते हैं। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - स्वस्थान अप्रमत्त मुनिराज को तो औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - इन तीनों सम्यक्त्व में से कोई भी एक सम्यक्त्व रह सकता है; परन्तु सातिशय अप्रमत्त मुनिराज को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - इन दोनों में से ही कोई एक रहता है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराज को तो श्रेणी पर आरोहण करना है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के साथ वे श्रेणी आरोहण नहीं कर सकते;क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में जो केवलज्ञानगम्य चल मलअगाढ दोष होते हैं, वे सूक्ष्म दोष भी श्रेणी के आरोहण कार्य में बाधक हैं। यद्यपि ये दोष सम्यक्त्वरूपी धर्म में तो विशेष बाधा उत्पन्न नहीं कर पाते; लेकिन श्रेणी-आरोहण के अलौकिक कार्य में बाधक अवश्य होते हैं। अतः बाधकपने को दूर करने के लिए ही मुनिराज का क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ही औपशमिक सम्यक्त्वरूप से परिणमित हो जाता है। इस कारण औपशमिक सम्यक्त्व में क्षायिक सम्यक्त्व जैसी निर्मलता आ जाती है, इसी सम्यक्त्व को द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं। श्रेणी चढ़ने के सन्मुख सातिशय सप्तम गुणस्थानवर्ती क्षायोपशमिक
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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