________________ 165 अप्रमत्तविरत गुणस्थान 3. भावलिंगी मुनिराज सातवें-छठवें और छठवें-सातवें गुणस्थान में सतत गमनागमन करते ही रहते हैं/झूलते ही रहते हैं। ऐसे काल में उन्हें प्राप्त होनेवाले अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को स्वस्थान या निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं। 2. सातिशय अप्रमत्तसंयत - 1. चारित्रमोहनीय कर्म की 21 प्रकृतियाँ (अप्रत्याख्यानावरण 4, प्रत्याख्यानावरण 4, संज्वलन 4 और हास्यादि 9 नोकषाय) के उपशम तथा क्षय में निमित्त अध:करणादि तीन करणों में से प्रथम अधःप्रवृत्तकरण दशा सातिशय अप्रमत्तसंयत है। 2. जिस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से विशेष पुरुषार्थी मुनिराज नियम से छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नीचे आते ही नहीं, उस अप्रमत्त दशा को सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। 3. जिस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से विशेष पुरुषार्थी मुनिराज नियम से प्रमत्तसंयत में न जाकर ऊपर अपूर्वकरण गुणस्थान में ही जाते हैं अर्थात् श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं, उसे सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। श्रेणी तो आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से ही प्रारंभ होती है; तथापि श्रेणी की पूर्व तैयारी सातिशय अप्रमत्तविरत गुणस्थान में ही होती है। अप्रमत्त का स्पष्टीकरण - .. ___ पूर्वोक्त विकथादि पंद्रह प्रमादों की अभावरूप दशा अर्थात् शुद्धोपयोगरूप अवस्था को ही अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। अप्रमत्त दशा कहो अथवा प्रचुर आत्मानंद की दशा कहो - दोनों का एक ही अर्थ है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिजीवन की अपेक्षा इस अप्रमत्तसंयत/ आत्मलीनतारूप अवस्था को सावधान अवस्था कहते हैं। जिनागम की रचना करना, धर्मोपदेश देना, स्वयं दीक्षार्थी पात्र श्रावकों को मुनिदीक्षा देना आदि कार्य करना मुनि के लिए छठवें गुणस्थान की प्रमाद दशा है। केवलीप्रणीत वीतराग धर्म महान अद्भुत और आश्चर्यकारी है। जिन-जिन विषयों को सर्व जगत सर्वोत्तम मानता है / कहता है; उन्हीं