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________________ प्रमत्तविरत गुणस्थान 159 जिसप्रकार के बाह्य आचरण में प्रवृत्त होते हैं; उस आचरण को अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। 3. तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय के काल में शुद्धोपयोग से छूटने पर शुभोपयोग की भूमिका में मुनिराज की जीवनचर्या को अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। ___4. संज्वलन कषाय चौकड़ी के भूमिकानुसार तीव्र उदय के निमित्त से मुनिराज जिसप्रकार के आचरण में प्रवृत्त होते हैं; उसे अट्ठाईस मूलगुण कहते हैं। 64. प्रश्न : क्या पुलाक आदि मुनि सच्चे मुनि नहीं होते ? पुलाक मुनि का क्या स्वरूप है ? ___ उत्तर : “जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हों और किसी क्षेत्र या काल में किसी मूलगुण में अतिचार लगावें तथा जिनके अल्प विशुद्धता हो, उन्हें पुलाक मुनि कहते हैं।" जैसे गर्मी की ऋतु में जंघा तक पैर धो लेना आदि। ___ “पुलाक मुनि वैसे तो भावलिंगी सम्यग्दृष्टि मुनिराज ही होते हैं; परन्तु व्रतों के पालन में क्षणिक अल्पदोष हो जाते हैं; फिर भी यथाजातरूप ही हैं। (उन्हें तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक भावलिंगपना होता है।) उन्हें सामायिक और छेदोपस्थापना दो संयम होते हैं।" (अधिक स्पष्टिकरण के लिए सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवृत्ति, अर्थप्रकाशिका आदि ग्रंथों को देखें।) धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 176 से 178) सामान्य से प्रमत्तसंयत जीव हैं / / 14 / / प्रकर्ष से मत्त जीवों को प्रमत्त कहते हैं और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं। 14. शंका - यदि छठवें गुणस्थानवी जीव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं; क्योंकि प्रमत्त जीवों को अपने स्वरूप का संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं; क्योंकि संयमभाव प्रमाद के परिहार स्वरूप होता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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