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________________ 154 गुणस्थान विवेचन मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है; क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे सातवें अप्रमत्त में आकर छठवें-सातवें में झूलते हुए आगे श्रेणी मांडकर मुक्त हो सकता है। अतः मुक्ति के पूर्व अविरतसम्यक्त्व चौथे गुणस्थान की अनिवार्यता नहीं है। __4. यदि द्रव्यलिंगी मुनिराज अनादि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व गुणस्थान से ही सातवें अप्रमत्त संयत में जाते हैं और छठवें-सातवें में हजारों बार झूलते हुए श्रेणी मांडकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं तो उन्हें पाँचवाँ देशविरत गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है। 5. यदि मुनिराज उपशमश्रेणी पर आरोहण करते हैं तो ही उपशांत मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान की प्राप्ति होती है / जो मुनिराज उपशमश्रेणी पर आरोहण न करते हुए मात्र क्षपकश्रेणी पर ही आरोहण करते हैं तो उन्हें उपशांतमोह गुणस्थान की प्राप्ति होती ही नहीं; इसलिए ग्यारहवाँ गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है। __इस तरह संक्षेप में दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवाँ, ग्यारहवाँ - इन पाँचों गुणस्थानों के बिना तो कदाचित् जीव मुक्ति प्राप्त कर सकता है; लेकिन छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बिना तो कोई जीव मुक्ति प्राप्त कर ही नहीं सकता अर्थात् मिथ्यात्व, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, क्षपकश्रेणी के चारों गुणस्थान, सयोगकेवली और अयोगकेवली इन नव गुणस्थानों के बिना जीव मुक्त नहीं हो सकता। 61. प्रश्न : इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान को बंधकारक, शुभोपयोगरूप, जगपंथ और कथंचित् आकुलता उत्पादक जानते हुए भी भावलिंगी मुनिराज इस गुणस्थान में क्यों आते हैं ? उत्तर : 1. मोक्षप्राप्ति का क्रम किसी भी जीव के इच्छानुसार नहीं होता, जैसा वस्तुस्वरूप है, उसके अनुसार ही होता है / वह वस्तुस्वरूप तथा क्रम अनंत सर्वज्ञ भगवंतों ने जाना है और उसे दिव्यध्वनि में कहा है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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