________________ प्रमत्तविरत गुणस्थान से घटता हुआ अशुभोपयोग और शुभोपयोग होता है। चौथे एवं पाँचवें गुणस्थानों में अशुभोपयोग, बढ़ता हुआ शुभोपयोग और कदाचित् शुद्धोपयोग - इसपकार तीन उपयोग होते हैं। (3) छठवें गुणस्थान में मात्र शुभोपयोग। सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के सर्व गुणस्थानों में मात्र शुद्धोपयोग ही रहता है। विशेष अपेक्षा विचार 1. प्रमत्तसंयत यह छठवाँ गुणस्थान शुद्धपरिणति सहित शुभोपयोगरूप है। यद्यपि यह दशा मुनिजीवन में अपरिहार्य है, तथापि बंधकारक है। नाटक समयसार (मोक्षद्वार छन्द 40) में इसे जगपंथ कहा है, जो निम्नप्रकार से है - ता कारण जगपंथ इत, उत शिवमारग जोर। परमादी जग कौं धुकै, अपरमादि शिव ओर / / अर्थ - इसलिए प्रमाद संसार का कारण है और आत्मानुभव मोक्ष का कारण है। प्रमादी जीव संसार की ओर देखते हैं और अप्रमादी जीव मोक्ष की तरफ देखते हैं। मुक्ति प्राप्त करने के पूर्व अनिवार्य गुणस्थानों के संबंध में यहाँ थोड़ा विचार करते हैं - 1. अनेक जीव दूसरे सासादन गुणस्थान को प्राप्त किए बिना भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व के साथ चौथे आदि ऊपर के गुणस्थानों से पतित होता है, वही दूसरे गुणस्थान में आता है। ऐसे उपरिम गुणस्थानों से सासादन में पतित न होनेवाले अनेक जीव मोक्ष जा सकते हैं। अत: दूसरा गुणस्थान अनिवार्य नहीं है। 2. तीसरा गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है; इस तीसरे गुणस्थान में प्रवेश किए बिना भी मुक्ति संभव है; क्योंकि यदि जीव पहले गुणस्थान से ही चौथे में आता है अथवा पाँचवें, सातवें में आता है तो छठवेंसातवें में आत्मानंद का रसपान करते-करते नीचे गमन किए बिना ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अत: तीसरा गुणस्थान भी अनिवार्य नहीं है। 3. चौथे अविरतसम्यक्त्वगुणस्थान की प्राप्ति के बिना भी जीव