________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान ___ 123 उत्तर : सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए अणव्रतों अथवा महाव्रतों का पालन करना आवश्यक नहीं है। हाँ, यदि सम्यग्दर्शन के पहले कदाचित् बाह्य व्यवहार व्रत ले लिए हों तो उनके पालते हुये भी तत्त्वचिंतन की मुख्यता हो तो सम्यग्दर्शन हो सकता है; परन्तु व्रतों के बिना भी अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती है। विशेष अपेक्षा विचार - 1. अविरतसम्यग्दृष्टि को विशिष्ट प्रशस्त राग के कारण ही तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का बंध प्रारंभ होता है। दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। इन सोलह भावनाओं में भी मुख्यरूप से तो एक दर्शनविशुद्धि भावना ही कारण है। यह एक भावना हो और अन्य पन्द्रह भावनाएँ हीनाधिक' भी हों तो भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। यह एक भावना ही अन्य सभी भावनाओं की उत्पादक है। सब जीवों का परमकल्याण हो, सब जीव मेरे समान मोक्षमार्गी होकर सुखी बनें - ऐसी सम्यग्दर्शनपूर्वक लोक-कल्याण की अखंड भावना का नाम ही दर्शनविशुद्धि भावना है। चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक कहीं भी तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म का बंधना प्रारम्भ हो सकता है। आठवें गुणस्थान के छठवें भागपर्यंत तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता रहता है; परंतु उदय तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानों में ही रहता है, जिसकारण बाह्य में समवशरण की प्राप्ति होती है। 2. इस अविरतसम्यक्त्वगुणस्थान से ही जीव को पारमार्थिक अतीन्द्रिय सुख का अंश प्रगट होता है। विपरीत श्रद्धानी अर्थात् प्रथम गुणस्थान से तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से दु:खी ही हैं। पूर्व पुण्योदय के उदय से कुछ जीवों को बाह्य अनुकूल वस्तुओं के संयोग में सुख जैसा लगता है; परंतु वह सच्चा सुख नहीं है। __वीतरागता/समताभाव ही सच्चा सुख है / यह सुख यथार्थ श्रद्धा के साथ ही उत्पन्न होता है। यथार्थ श्रद्धा आत्मानुभवपूर्वक ही होती 1. धवला पुस्तक 9, पृ.