________________ 122 गुणस्थान विवेचन अन्याय - जिस काम को सरकार भी अयोग्य मानती है, दण्डयोग्य समझती है, मनुष्य को जेल में डालती है, देश से बाहर निकाल देती है, फाँसी आदि की सजा देती है; ऐसा कोई भी काम करनेवाला मनुष्य अन्यायी है और वह सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए अपात्र है। अनीति - जिस काम के कारण जैन समाज अथवा जैनेतर समाज भी मनुष्य की निंदा करे, ऐसा कार्य अनीति की कोटि में आता है। जैसे - वृद्ध माता-पिता की सेवा नहीं करना, दूसरों की निंदा करते रहना, लौकिक नीति से विरुद्ध आचरण रखना आदि। (अधिक जानकारी के लिए भावदीपिका शास्त्र का औदयिक भावाधिकार देखें) अभक्ष्य - जिस खान-पान की जैन शास्त्रों में सहमति नहीं है। ऐसे वस्तुओं के भक्षण को अभक्ष्य कहते हैं। जैसे - अनंतकाय जीव जिसमें हैं; ऐसे पदार्थ - प्याज, लहसुन, मूली, आलू, शकरकंद, गाजर आदि जमीकन्द का भक्षण, रात्रिभोजन करना, अगालित (अनछना) जलपान आदि सब अभक्ष्य की कोटि में गिने जाते हैं। इसतरह अन्याय, अनीति और अभक्ष्य के बुद्धिपूर्वक त्यागी पात्र जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति के अधिकारी समझना चाहिए।' सप्तव्यसन और तीव्र हिंसादि पापों का त्याग तो नामधारी जैन भी करता ही है। सप्तव्यसनादि के त्याग के लिए जैन मनुष्य को समझाना जैन मनुष्य का अपमान करने जैसा है। इस विषयक मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 261 पर अत्यंत मार्मिक कथन आया है, उसे उस शास्त्र के शब्दों में ही देखिए - "..... किसी को देवादिक की प्रतीति और सम्यक्त्व युगपत् होते हैं तथा व्रत-तप, सम्यक्त्व के साथ भी होते हैं और पहले-पीछे भी होते हैं। देवादिक की प्रतीति का तो नियम है, उसके बिना सम्यक्त्व नहीं होता; व्रतादिक का नियम नहीं है। बहत जीव तो पहले सम्यक्त्व; पश्चात् ही व्रतादिक को धारण करते हैं, किन्हीं को युगपत् भी हो जाते हैं.....।" 46. प्रश्न : अणुव्रतों या महाव्रतों का स्वीकार करना सम्यक्त्व के लिए आवश्यक है या नहीं ? 1. रत्नकरण्ड श्रावकाचार पृ. 303