________________ शरीर को जीव ही बनाता है / पूर्व जन्म में से जीव आ कर जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ के पुद्गल को अपने आहार के रूप में ग्रहण करता है / व उस आहार में से रस, रुधिर आदि का शरीर बनाता है / शरीर में इन्द्रियों को भी वही बनाता है / यह सब अपने पूर्व कर्म के अनुसार बनता है / इसीलिए एक ही माता के गर्भ में क्रमशः आए दो बच्चे अपने भिन्न भिन्न कर्म के कारण ही भिन्न भिन्न वर्ण, आकृति, स्वर आदि भिन्न-भिन्न विशेषतावालें होते हैं | जैन शास्त्र बताता है कि संसार में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के अनंत जीव है / जैसे नीमक, मिट्टी, पाषाण, रत्न, धातुएँ... आादि एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीव है / उन्हें शरीर को एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय मिली है / जैसे समुद्र, नदी, तालाब आदि का पानी भी स्वयं जीव का शरीर है यानी वे एकेन्द्रिय अप्कायिक जीव है / वैसे आग भी एकेन्द्रिय अग्निकायिक जीव है / जीव अनादि काल से सूक्ष्म अनंतकाय वनस्पति में जन्म-मरण करता हुआ चला आता है / संसार में से एक जीव मोक्ष में जाता है तब इन सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवो में से एक जीव बाहर निकलकर पृथ्वीकायिक आदिक जाति में उत्पन्न होता है, तब वह अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आया ऐसा गिना जाता है / अब तो आगे आगे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि बनकर यावत् पंचेन्द्रिय जाति के नारक, तिर्यंच, मनुष्य या देव रूप में उत्पन्न होता है / इस में केवल ऊंचे ही ऊंचे चढता है ऐसा कोई नियम नहीं, किन्तु - 30