________________ आत्मा, परलोक, कर्म, आदि अतीन्द्रिय पदार्थो का निर्णय 'अनुमान' प्रमाण से किया जा सकता है / इतर दर्शनो में प्रमा (यथार्थज्ञान) के कारण को प्रमाण कहा गया है / किन्तु प्रामाण्य की बात चले अर्थात् उसका जब विचार होता है तब उसे प्रमा का धर्म माना जाता है / किन्तु यह कैसे संभव है? प्रामाण्य तो प्रमाण का धर्म है / अतः 'प्रमाण' यह ज्ञान का करण नहीं, किन्तु स्वयं 'ज्ञान' है / अतः जैनदर्शन का कथन है 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् / ' नय और निक्षेप : वस्तु (पदार्थ) को समग्र रूप से ज्ञान करने वाला 'प्रमाण' ज्ञान है व अंश रूप से ज्ञान करने वाला 'नय' ज्ञान है / जैसे कि चक्षु से ज्ञान किया 'यह घडा (मटका) है' यह प्रमाण ज्ञान है / यह कराने वाली चक्षु यह प्रमाण है / वस्तु में अनेक धर्म हैं, ये वस्तु के अंश हैं / क्योंकि ये धर्म वस्तु में कथंचित् अभिन्न भाव से रहते है, वास्ते इनमें से प्रत्येक धर्म वस्तु का अंश हुआ / वस्तु या पदार्थ में भिन्नाभिन्न रूप से (अर्थात् भेदाभेद संबंध से) अनन्त धर्म विद्यमान है / अतः वस्तु या पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है / कारण यह है कि वस्तु में अनेकानेक 'गुण' और विशेषताएँ 2 32280