________________ का वर्णन हुआ / शेष पांच ये हैं, - (6) दिशा-त्याग 3:- अब चैत्यवंदन करना / इस में वंदनायोग का व्याघात न हो अर्थात् चित्त में प्रारंभ किया हुआ वन्दनापरिणाम दूसरे विचार या दूसरी प्रवृत्ति से लेशमात्र भी खंडित न हो और अंत तक अखण्डित रहें इसके लिए पहले (i) अपनी दोनों ओर की दो, तथा पीछे की एक,यों तीन दिशा में, अथवा (ii) ऊपर, नीचे, और आसपास-यों तीन दिशा में देखना बंद करना है / चैत्यवंदन पूरा होने तक प्रभु के सामने ही देखने का निश्चित कर लेना है / यह दिशा-त्याग है / / (7) प्रमार्जना 3:- बैठने के पहले तीन बार दुपट्टे के छोर से जगह को जीव-रक्षार्थ प्रमार्ज लेना चाहिए / जिस से किसी सूक्ष्म भी जीव की हिंसा न हो, उसकी रक्षा ठीक प्रकार से हो / (8) आलम्बन 3 :- बैठकर मन को तीन आलम्बन देने हैं (i) प्रतिमा, (ii) हमारे द्वारा बोले जाने वाले सूत्र-स्तवन के शब्द, तथा (iii) उनका अर्थ; इन तीनों में ही आँख-जीभ-चित्त को स्थिर रखना। (9) मुद्रा 3:- योग के यम-नियमादि आठ अंगों में तीसरा अंग 'आसन' है / चैत्यवंदन का महान योग सिद्ध करने के लिये योगांग की भी आवश्कता है | उसकी सिद्धि शरीर की विशिष्ट मुद्रा से होती है / (i) योग-मुद्राः- सूत्र-स्तुति-स्तवन आदि बोलते समय दोनो हाथों 1868