________________ राज्य-संपत्ति व राज्य-सत्ता प्राप्त हुई, तो भी आप इस में अंशमात्र भी आसक्त नहीं हुए / आप अनासक्त योगी के समान रहें / धन्य है आपका वैराग्य / ' (iii) श्रमणावस्थाः - 'हे वीर प्रभो ! महान वैभवपूर्ण संसार को आपने तृणवत् त्यागकर कर्मक्षय व आत्मकल्याण के लिए साधुजीवन का स्वीकार कर के घोर परिषहों और उपसर्गो को समताभाव पूर्वक सहन किया / साथ ही अनुपम त्याग और घोर तप किया / रातदिन खडे-खडे ध्यान में रहे / ऐसा करके आपने घनघाती कर्मो को चूर-चूर कर दिया / धन्य साधना ! धन्य पराक्रम ! धन्य सहिष्णुता / ' (iv) पदस्थ अवस्थाः - अर्थात् तीर्थंकर पद भोगने की अवस्था / इस विषय में यह भावना करनी चाहिए कि 'हे नाथ ! आपने कैसे चौंतीस अतिशय धारण करनेवाले अरिहंत तीर्थंकर बनकर (1) पैंतीस वाणी-गुणों से अलंकृत तत्त्वमार्ग-सिद्धान्त की धर्मदेशना प्रवाहित की! तथा (2) तीर्थ-चतुर्विध संघ व शासन की स्थापना की ! इसी प्रकार (3) दर्शन-स्मरण-पूजा-ध्यानादि में आलम्बन प्रदान कर आपने जगत् पर कितना महान् उपकार किया !' आपने जगत को (1) जीव-अजीव आदि सम्यक् तत्त्व बताएँ (2) सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र का मोक्षमार्ग दिया / व (3) अनेकान्तवाद, नयवाद आदि लोकोत्तर सिद्धान्तों का उपदेश दिया / हे त्रिभुवनगुरो ! आपकी देशना के लिए देवताएँ समवसरण की SA 1848