________________ प्रज्ञा (बुद्धि) पर फुलाना नहीं, (अति हर्षित न होना, घमंड न करना) 21. अज्ञानता पर (पढ़ना न आए तो) दीन न बनकर निराश न होकर कर्मोदय का विचार कर ज्ञानोद्यम जारी रखना, और 22. अश्रद्धा, तत्त्वशंका अथवा अतत्त्वकांक्षा उत्पन्न होने पर "सर्वज्ञ की वाणी में लेश मात्र भीतर फर्क नहीं होता" यह सोचकर उसे रोकनी / दश यतिधर्म :- 1. क्षमा (समता-सहिष्णुता) 2. नम्रता-मृदुता, लघुता, 3. सरलता, 4. निर्लोभता, 5. तप(बाह्य-आभ्यन्तर). 6. संयम (दया-जयणा व इन्द्रिय-निग्रह), 7. सत्य (निरवद्य भाषा), 8. शौच (मानसिक पवित्रता, अचौर्य, धर्म सामग्री पर भी निर्मोहता), 9. अपरिग्रह तथा 10. ब्रह्मचर्य-इनका पूर्णतः पालन करना / 12 भावना : बारह भावना बार-बार चिंतन द्वारा जिससे आत्मा को भावित किया जाए वह भावना कहलाती है / इसके बारह प्रकार हैं - 1. अनित्यता - बाह्य तथा आभ्यन्तर सभी संयोग अनित्य है, विनश्वर हैं, में अविनाशी हूँ, विनाशी से मुझे मोह क्या? 2. अशरण - भूखे शेर के समक्ष हरिण अशरण है वैसे अशातादि कर्मो के उदय व मृत्यु या परलोकगमन के सामने जीव अशरण निराधार-अनाथ है / जीव को अपनी होशियारी, धन, कुटुम्ब आदि कोई बचानेवाला नहीं / 'ऐसा सोचकर शरणभूत धर्म पर टके रहेना / ' 2 1010