________________ आनुपूर्वीभङ्गगुणनमाहात्म्यम् जं छम्मासिय वरसिय, तवेण तिव्वेण भिट्ट(ज्झ)ए पावं / नमुक्कार-अणणुपुव्वी-गुणणे तयं खणद्धेण // 27 // जो गुणइ अणणुपुव्वि-भंगे सयले वि सावहाणमणो / दढरोसवेरिएहिं, बद्धो वि स मुच्चए सिग्धं // 28 // एएहिं अभिमंतियवासेणं, सिरसि खित्तमित्तेण / साइणिभुअप्पमुहा, नासंति खणेण सव्वगहा // 29 // अन्नेवि अ उवसग्गा, रायाइभयाइं कुट्ठ रोगा य / नवपय-अणाणुपुव्वी-गुणने जंति उवसामं // 30 // तवगच्छमंडणाणं सीसो, सिरिसोमसुंदरगुरूणं / परमपयसंपयत्थी, जंपइ नवपयथयं एयं // 31 // पंचनमुक्कारथयं, एयं सेयंकरं तिसंझमवि / जो जाएइ लहइ, सो जिणकित्तियमहिमसिद्धिसुहं // 32 // व्याख्या - एषा सप्ताऽपि स्पष्टार्थाः / / 26 / / / / 27 / / // 28 // // 29 / / / / 30 / / / / 31 / / / / 32 / / एष श्रीपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमहामन्त्रः सकलसमीहितार्थप्रापणकल्पद्रुमाभ्यधिकमहिमा शान्तिकपौष्टिकाद्यष्टकर्मकृत् ऐहिकपारलौकिकस्वाभिमतार्थसिद्धये यथाश्रीगुर्वाम्नायं ध्यातव्यः / श्रीमत्तपागणनभस्तरणेविनेयः श्रीसोमसुन्दरगुरोजिनकीर्तिसूरिः स्वोपज्ञपञ्चपरमेष्ठिमहास्तवस्य वृत्तिं व्यधाज्जलधिनन्दमनुप्रमेऽब्दे (1494) / इति श्रीजिनकीर्तिसूरिविरचितनमस्कारस्तववृत्तिः समाप्ता /