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________________ कृतीयसर्गः नहीं है"। इस तरह सखियों द्वारा ( शब्द. ) छल से बेवकूक वनाई जाती हुई वह ( दमयन्तो) बोली-( सखियो ! ) मेरे मविष्यकालीन शुभ का सूचक यह हंस ( मराल ) अशकुन ( अपक्षी; अपशकुन वाला ) नहीं हो सकता है // 6 // टिप्पणी-यहाँ कवि हंस और शकुन शब्दों में वाक्छल का प्रयोग कर रहा है / हंस मराक और सूर्य दोनों को कहते हैं। इसी तरह शकुन पक्षी और शुभ-चिह्न को मी बोलते हैं / हंसी के वातावरण में सखियों ने हंस (सूर्य) के सम्मुख यात्रा अशकुन बताया तो दमयन्तो तपाक से जवाब देती है-'अरी वह अशकुन हंस और है, यह तो शकुन हंस है,। इस तरह यहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार है। साथ ही सूर्य-रूप हंस का अपह्लव करके पक्षी-रूप हंस की स्थापना होने से अपह्नति मी है। 'भवे' 'भावि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / हंसोऽप्यसो हंसगतेः सुदत्याः पुरः पुरश्चारु चलन् बभासे / लक्ष्यहेतोर्गतिमेतदीयामग्रेऽनुकृत्योपहसभिवोच्चैः // 10 // अन्वयः-असौ हंसः अपि हंसगतेः सुदत्याः पुरःपुरः चलन् वैलक्ष्य हेतोः एतदीयाम् गतिम् अग्रे अनुकृत्य उच्चैः उपहसन् इव बभासे / टीका-असौ हं-: मरालः अपि हंसस्य गतिः गभनम् ( 10 तत्पु० ) इव गतिः ( उपमान. तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी० ) सुदत्याः शोभनदन्ताया दमयन्त्याः पुरःपुरः अग्र-प्रग्रे ( वीप्सायां द्वित्वम् ) चलन् गच्छन् वैलक्ष्यं लज्जा तस्य हेतोः कारणात् ( 10 तत्पु० ) एतदीयां दमयन्ती-सम्बन्धिनी गतिं गमनम् अग्रे अस्या एवाग्रे इत्यर्थः अनुकृत्य विडम्बयित्वा उच्चैः अतिशयेम उपहसन् ताम् उपहासास्पदीकुर्वन् इत्र बभासे बभौ। हंसेनापि दमयन्ती उपहसितेति भावः // 10 // __ व्याकरण-सुदस्याः-इसके लिए दि० सर्ग का श्लोक 77 देखिए / वैलचयम् विलक्षस्य ( लज्जितस्य ) भाव इति विलक्ष+व्यम् / एतदीयाम् एतस्या इमाम् इति एतत्+छ, छ को ईय+ टाप् / बमासे भात+लिट् / अनुवाद-वह हंस भी हंस की-सी चाल वाली उस सुन्दरी दमयन्ती के आगे-आगे चल ता जाता हुआ ( उसे ) लज्जित करने हेतु उसकी चाल की नकल उतारकर उसकी खूब खिल्ली उड़ाता हुआ-जैसा लग रहा था // 10 // टिप्पणी-पिछले श्लोकों में कवि ने सखियों द्वारा दमयन्ती का उपहास कराया था। इस श्लोक में वह हंस द्वारा भी उपहास जैसा करवा रहा है। उपहास की कल्पना से यहाँ उत्प्रक्षा है जिसकी 'हंसगतेः' इस लुप्तोपमा के साथ संसृष्टि है / 'हंसो' 'हंस' में छेक, पुरःपुरः में वीप्सालंकार और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पदे पदे भाविनि माविनी तं यथा करप्राप्यमवैति नूनम् / तथा सखेनं चलता लतासु प्रतार्य तेनाचकृषे कृशाङ्गी // 11 // अन्वयः-माविनी माविनि पदे पदे तम् कर-प्राप्यम् नूनम् यथा अबैति, तथा सखेलम् चलता तेन प्रतायं कृशाङ्गी लतासु आचकले।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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