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________________ 72 नैषधीयचरिते टोका-यस्या नगर्या अतिशयेन विमलं ( प्रादि तत्पु० ) नील-वेश्म ( कर्मधा० ) नीलानां नालमणीनां वेश्म मवनं (प० तत्पु० ) रश्मिभिः किरणः भ्रमरिता भ्रमरवत् आचरिता नीलीभूतेत्यर्थः माः कान्तिः (कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूता (ब० वी० ) शुचिः शुभ्रवर्मा सौध-वस्त्र वल्लिः ( कर्मधा०) सोरस्य मवनस्य यत् वस्त्रं दुकूलं (प० तत्पु० ) वल्लिलतेव ( उपमि। तत्पु. ) शुभ्रदुकूलपताकेत्यथः दिवसकरस्य सर्यस्य अङ्कस्य क्रोडस्प तले प्रदेशे ( उभयत्र प० तत्पु० ) चला चञ्चला अत एव लुठन्ती खेलन्ती सती शमनस्य यमस्य स्वसुः भगिन्या यमुनाया इत्यर्थः शिशुत्वं शैशवम् अलमत प्राप / सूर्यचुम्बिगृहोच्चशिखरे वायुचालिता शुम्रवर्षपताका नीलमणिगृहाणां नीलिम्ना नीलीभूता सती पितुः सूर्यस्याङ्के क्रीडन्ती नीला यमुनेव दृश्यते स्मेति मावः // 103 // व्याकरण-भ्रमरित भ्रमर इत्राचरतीति नमर+क्यङ् ( आचाराथें ) क्तः ( कर्तरि ) / दिवस. करः दिवसं करोतीति दिवस+Vs+ट: ( कर्तरि ) / शमनः शमयति समापयति प्राणिन इति Vशम् + पिच+ल्युः ( कर्तरि ) / अनुवाद-जिस ( नगरी) के प्रतिनिर्मल नील-मणियों के बने भवन की किरणों से भ्रमर-जैसी (काली) बनी भवन की लता-जैसी सफेद रेशमी पताका सूर्य की गोद में चंचल बनी, लुहकतो हुई यम को बहिन-यमुना-का बचपन अपना रही थी। 103 // टिप्पणी-यहाँ भवन-पताका का सूर्य से सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बनाने से असम्बन्धे सम्मन्धातिशयोक्ति, सफेद पताका का नीलमणियों से नीली हो जाने से तद्गुण, भ्रमरवत् आचरण से उपमा सम्पदातिशय से उदात्त और यमुना का शैशव अपनाने में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से सादृश्य में पर्यवसित निदर्शना-इन सबका संकर है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपात है। यहाँ पुष्पिताग्रा छन्द है निसका लक्षण यह है--'अयुजि न युगरेफनो यकारो युजि तु ननौ जरगाश्च पुष्पितामा' / अर्थात् जिसके पहले और तीसरे पाद में न, न; र, य और दूसरे चौथे पाद में न ज, ज, र, ग हों वह पुष्पितामा छन्द होता है। स्वप्राणेश्वरनर्महयंकटकाविथ्यग्रहायोत्सुकं पाथोदं निजकेलिसौधशिखरादारुह्य यस्कामिनी / साक्षादप्सरसो विमानकलितव्योमान एवाभव चन प्राप निमेषमभ्रतरसा यान्ती रसादध्वनि // 104 // अन्वयः- यत्कामिनी निज-केलि-सौष-शिखरात् स्वप्राणेग्रहाय उत्सुकम् पाथोदम् प्रारुख अभ्रतरसा अध्वनि रसात् यान्ती सती यत् निमेषम् न प्राप, ( तस्मात् ) विमान-कलित-व्योमानः साक्षात् अप्सरसः एव अभवन् / टोका-यस्या नगर्याः कामिनी जातावेकवचनं कामिन्यो युवतय इत्यर्थः (10 तस०) निनं यत् केलि-सौधम् ( कर्मधा० ) केलये क्रीडायै सौधम् गृहम् ( च० तत्पु० ) तस्य शिखरात शृङ्गात् ( 10 तत्पु० ) स्वः स्वकीयः यः प्राणेश्वरः( कर्मधा० ) प्राणानाम् ईश्वरः नाथः (10 तत्पु०) तस्य यत् नर्म-हर्म्यम् ( प० तर) नार्थ कोडार्थ हर्म्यम् गृहम् ( च० तत्पु० ) तस्य कटके मध्य
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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