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________________ नैषधीयचारते परली (तो) दान देते समय ( संकल्प में) बहतो जल-धारा रूपी मोतियों का हार पहने कोति होती है ( राजकुमारी नहीं) // 128 // टिप्पणी-दान देते समय हाथ में कुश और जल लेकर संकल्प छोड़ा जाता है, जिसके सम्बन्ध में पीछे श्लोक 85 देखिए / घाररूप में गिरते हुए जल बिन्दुओं पर मौक्तिकहारस्व और कीनि पर प्रियदारस्व का आरोप होने से रूपक है, जो यहाँ कार्यकारणभाव होने से परम्परित है / राजकुमारी प्रियदारत्व का आर्थ निषेध करके कीर्ति पर उसकी स्थापना से परिसंख्या भी है / पाण' 'पाणि' में छेक, 'दारा' 'हारा' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चर्म वर्म किल यस्य न भेद्यं यस्य वज्रमयमस्थि च तौ चेत् / स्थायिनाविह न कर्णदधीची तम धर्ममवधीरय धीर ! // 129 // अन्वयः यस्य ( कर्णस्य ) चर्म न मेद्यम् किल, यस्य ( दधीचेः ) अस्थि च वज्रमयम ( किल ), तो कर्णदधीची इह न स्थायिनी चेत् , तत् हे धीर ! धर्मम् न अवधीरय।। टोका-यस्य कर्णस्य चर्म त्वक न भेद्यम् अभेद्यम् , अच्छेद्यम् वर्म कवचम् आसीत् किल श्रयते ( 'वाता-सम्भाव्ययोः किल' इत्यमरः ), यस्य दधीचेः अस्थि कीकसम् च वज्रम् एवेति वज्रमयम् वज्ररूपम् प्रासोत किल, तो कर्णश्च दधीचिश्चेति ( द्वन्द्व ) इह जगति न स्थायिनौ स्थिरी न मृत्युमुपगती इत्यर्थः चेत् , तत् तर्हि हे धीर बुद्धिमन् ! धर्म प्रतिज्ञापालनरूपं कर्तव्यमित्यर्थः न अवधीरय अवजानीहि / शरीरमिह विनश्वरम् , तदद्वारा कृतो धर्मएवाविनश्वरो भवति, तस्मात् प्रतिज्ञा पालयन् धर्म-रक्षेति भावः // 129 // __ग्याकरण-भेद्यम् मेत्त शक्यमिति /भिद् +ण्यत् / वज्रमयम् वज्र+मयट् ( स्वरूपायें ) / स्थायि तिष्ठतीति /स्था+पिनिः युगामम / धर्मः ध्रियतेऽनेन जगदिति ध+मन् ( करणे)। धीर इसके लिए पीछे श्लोक 118 देखिए / अनवाद-"सुनते हैं कि जिसकी त्वचा अभेद्य कवच थो और जिसकी हड्डी वज्ररूप थी, वे दोनों कर्ष और दधीचि इत संमार में नहीं रहे, तो हे विद्वान् ! धर्म का अनादर मत करो" / / 12 / / टिप्पणो-चर्म वर्ग- सूर्य-पुत्र होने से उसकी कृपा से कर्ण जन्म-जात कुण्डल और कवच लिये उत्पन्न हुआ था / उसको छाती को त्वचा कवच-रूप थी। अपने पुत्र अर्जुन के पक्षपाती इन्द्र ने सोचा कि बिना सहजात कवच हटाये कर्ण सदा अजेय ही बना रहेगा, और अर्जुन इससे मार ही खाता रहेगा, इसलिए ब्राह्मण का रूप धारण कर वह कर्ण के पास गया और दान के रूप में उससे सहज कुंडल और कवच मांग बैठा / कर्ण ठहरा महादानी / केसे ना करता ? उसने मांगदे हो झट शस्त्र से कुण्डल और कवच काटे और ब्राह्मण-रूपधारी इन्द्र को दे दिये। इसके बदले प्रसन्न हुए इन्द्र ने उसे एक अमोघ शक्ति ( माला ) दे दी थी। वज्रमयमस्थि-इसके सम्बन्ध में पोछे श्लोक 111 देखिए / नल सत्ययुग में हुए। उनसे पहले सत्य युग में दधीचि मी हुए, जिन्होंने इन्द्र को वज्र बनाने हेतु अपनी अस्थियों दे दो थी, किन्तु कर्ष तो द्वापर में हुआ, जो सत्ययुग और त्रेतायुग के बाद आता है, इसलिए समझ में नहीं आता कि कवि ने दापर में होने वाली कर्ण-सम्बन्धी घटना
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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