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________________ पञ्चमसर्गः तुमने पूरा किया है-यह तुम्हारी जग में कितनी बड़ी प्रतिष्ठा होगी, दूसरे शतमन्युः-से वह ध्वनित होता है कि याचक कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि सौ यशों का अनुष्ठाता स्वयं 'इन्द्र' था जिससे उसमें दान की उच्च पात्रता सिद्ध होती है। इसलिए हमारे विचार से यहाँ क्रमशः परिकर और परिकराङ्कर अलंकार है। 'शशिकल्पम्' में उपमा है / 'नलः' 'नले' 'कल्पम्' 'कल्प' 'मन्यु' 'हान्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनु पास है। न व्यहन्यत कदापि मुदं यः स्वःसदामुपनयन्नभिलाषः / तस्पदे स्वदमिषेककृतां नः स स्यजस्वसमतामदमद्य // 12 // अन्वयः-स्वःसदाम् मुदम् उपनयन् यः अभिलाषः कदा अपि न व्यहन्या तत्सदे त्वदमिषेककृताम् नः स असमता-मदम् अद्य त्यजतु / टीका-स्वः स्वर्ग सोदन्ति तिष्ठन्ति वसन्तीति यावत् तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) स्वर्गवासिना देवतानामित्यथः हर्षम् मोदम् उपनयन् जनयन् यः प्रमिलाषः मनोरथः कदापि कस्मिन्नपि काले न व्यहन्यत न विहतः, न वंकल्यं गत इति यावत् , सर्वदैवास्माकमिष्टसिद्धिः भवति स्मेति मावः तस्य अभिलाषस्य पदे स्थाने ( 10 तत्पु०) तव अमिषेकम् ( 10 तत्पु० ) प्रतिष्ठापनम् ( 10 तत्प०) कुर्वन्तीति तथोक्तानाम् / उपपद तत्पु० ) नः अस्माकं स: अमिलाषः न समः तुल्यो यस्य तथामूतस्य (ब० बी० ) माव इत्यसमता तस्या मदम् गर्वम् (प० तत्प० ) मत्तुल्योऽन्यो मनोरथपूरको नास्तीत्येतद्विषयकाममानमित्यर्थः अद्य यजत जहात / पूर्वम् यत्किमपि अमीष्टं मवति स्म; तदस्मा. कमभिलाषः पूरयति स्म, अधुना तु तस्य स्थानेऽस्माभिः त्वं प्रतिष्ठापितोऽसि / त्वमेवास्माकम् अमीष्टं पूरयितुं शक्नोषीति भावः / / 123 / / / / व्याकरण-स्वःसदाम् स्त्रः सद् + विप् ( कर्तरि ) 10 ब० / मुद्/मुद्+विप् (मावे)। प्रमिलाः अमि+Vलष्+घन ( मावे ) / व्यहन्यत वि+ हन् +लङ (कर्मवाच्य ) अथवा कर्म-कर्तरि प्रयोग 0 कृताम् V+विप ( कर्तरि ) 10 ब० / मदः मद् +अच ( मावे ) / . अनुवाद-स्वर्ग-निवासियों ( देवताओं ) को हर्ष उत्पन्न करता हुमा जो मनोरथ कमी निष्फल नहीं हाता था, उप्त के स्थान में तुम्हें अमिषिक्त करते हुए हमारे उस मनोरथ का आन अपनी अनुपमता का अभिमान छोड़ देना चाहिए / / 123 / / टिप्पणी-इस श्लोक का अर्थ हमें कुछ अटपटा-सा लग रहा है। अन्य टीकाकार मी गड़बड़ा रहे हैं। यहाँ आभलाष का चेतनीकरण कर रखा है, जो समाजाक्ति का प्रयोजक बना करता है विद्याधर व्यतिरेक कह रहे हैं, जिसमें उपमेय में उपमान की अपेक्षा कुछ अधिकता बताई जाती है। उपमान से वे पूर्व श्लोक में प्रतिपादित कल्पवृक्ष को लेते हैं जो इस श्लोक में 'तत्पदे' में आये हुए 'तत्' शब्द से प्रतिपादित है। ऐसी स्थिति में सारे ही श्लोक का अर्थ इस तरह बदल जायेगा'जिस कल्पवृक्ष द्वारा हम स्वर्गनिवासी देवताओं को आनन्द-प्रद कोई मा इच्छा कभी निष्फल नहीं कर दो जाती थी, उस ( कल्पवृक्ष ) के स्थान में तुम्हें प्रतिष्ठापित करते हुए हमारे उस ( कल्पवृक्ष ) को ( दान में अपनी ) अद्वितीयता का अभिमान आज छोड़ देना पड़ेगा।' हमें यहो अर्थ ठोक लगता
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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