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________________ पञ्चमसर्ग: 301 अनुवाद-हे राजन् चन्द्र वंश में उत्पन्न हुए आपने ही यह नहीं कहा था (कि जो मांगो, सेवा में अस्ति कर दूंगा ) 1 प्रार्थियों के प्रति स्वयं वान्छित ( वस्तु ) देना स्वीकार किये हुये तुम्हारी जीम . अब ) मुकर जाने से नहीं लजातो ? / / 117 / टिप्पणी-यहां इदम्' से नारायण और मल्लिनाथ-दोनों टीकाकार श्लोक 'सेयमुच्चतरता' (104 ) से लेकर 'कुण्डिनेन्द्रसुतया' (114 ) तक कहे नल के निषेध-परक वचनों को लेते। अर्थात् चन्द्रवंशत्रन्न आपने ही हमको ना नही करदी है क्या ? हम 'इदम्' में श्लोक 17 में देवताओं को नल द्वारा दिये हुए वचन को लेने में अधिक स्वारस्य देखते हैं। विद्याधर 'भुवैव' के स्थान में भुवेव' पाठ मानकर यहां उपमा कह रहे हैं जो प्रकृत में ठीक नहीं बैठ रही है। यदि 'अरोहिषीरमणवंशभुवेव' होता. तो कुछ बात मी थी। किन्तु बैसी स्थिति में मी उत्प्रेक्षा ने बनना था उपमा ने नहीं। शब्दालंकारो में 'वाम्या' 'काम्या' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्यनुप्रास्ल है। नारायण के अनुसार इन्द्र ने यहां मो वाक्छल का प्रयोग करके नल की इस प्रकार हँसी उड़ाई है-रोहिणी गाय के रमण =सांड के कुल में जन्मे तुमने यह नहीं कहा है क्या ? जो कहे हुये को नहीं करता है वह सांड-सा मूर्ख अथवा पशु होता है / सांड को भी जिह्वा खाए तृणादि को वाम्य वमन कर देने से नहीं लजाती है। जगालो करते समय सांड खाए का वमन करके फिर खा जाता है। तुममें भी उसके वाम्य ( वमनं वमिः, वभिरेव वाम्यम् (स्वार्थ व्यञ् ) की तरह वाम्य ( पलट जाना ) दीख रहा है, अर्थात् बात मुँह से निकाली खाली / भङ्गरच वितथं न कथं वा जीवलोकमवलोकयसीमम् / येन धर्मयशसी परिहातुं धीरहो चलति धीर ! तवापि / / 118 // अन्वयः-हे धीर, ( त्वम् ) इमम् जीवलोकम् मङ्गुरम् वा वितथम् कथम् न अवलोकयसि, येन तब अपि धीः धर्म-यशप्ती परिहातुम् चलति इत्यहो ? ___टीका-हे धीर-विद्वन ! ( 'धीरो मनीषी श: प्राशः' इत्यमरः ) स्वम् इमम् एतम् जीवानां प्रापिनाम् लोकम् समूहम् (10 तत्पु० ) प्राणि-जगदित्यर्थः भगुरम मङ्गशीलं विनश्वरमिति यावत् वा अथवा वितथम् मिथ्या कथम् कस्मात् न अवलोकयसि पश्यसि बुध्यसे इत्यर्थः येन मङ्गुरत्वक्तियस्वानवलोकनकारणेन तव ते धोरस्य अपि धीः बुद्धिः धर्मः पुण्यं च यशः कीर्तिश्चेति ( द्वन्द्र) परिहातुं त्यक्तम् चलति चञ्चला भवति अहो आश्चर्यम् / विदुषा सताऽपि त्वया जगत् नश्वरं मिथ्या चामत्वा धर्म: यशश्चापि परिहीयेते इति कियदाश्चर्यमिति मावः / / 118 // व्याकरण-धीरः धियम् बुद्धिम् राति ददाति, प्रयुक्ते ( सर्वकार्येषु ) इति धी+/रा+क: ( कर्तरि ) / जीवः जोवतीति जीव +कः। भकुर-भज्यते इति /भज+घुरच् / वितथ-- यास्कानुसार विगतं तथा ( सत्यम् ) यस्मादिति ( प्रादि ब० बी०) धी/ध्ये +क्विप् , सम्प्रसारक। अनुवाद-हे विद्वान् ! तुम इस प्रापि जगत् को भंगुर अथवा मिथ्या क्यों नहीं समझ रहे हो जिससे तुम्हारी मो बुद्धि धर्म और यश छोड़ने हेतु चञ्चल हो उठी है ? आश्चर्य होता है // 118 // टिप्पणी-धीर-समझदार व्यक्ति क्षणभंगुर एवं मिथ्या जगत् को अपेक्षा धर्म और यश को " पटात इत्यहा?
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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