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________________ पञ्चमपर्ग: अनुवाद-बात यह है कि कुण्डिनपुर के राजा (मोम ) की पुत्री ( दमयन्ती ) ने मुझे वरना पहले ही स्वीकार कर रखा है। मेरे दीखते ही वह बहुत लज्जित हो उठेगी। वह आप लोगों को निश्चय ही स्वीकार नहीं करेगो // 114 // टिप्पणी-यहाँ देवताओं को स्वीकार न करने का कारण बता देने से काब्यलिङ्ग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। तत्प्रसीदत विधत्त न खेदं दूत्यमत्यसदृशं हि ममेदम् / हास्यतैव सुलमा न तु साध्यं तद्विधित्सुमिरनीपयिकेन // 115 // अन्वयः-तत् पसीदत, खेदम् न विधत्त, हि मम इदम् दूत्यम् अत्यसदृशम् ( अस्तीति शेषः ) अनौपयिकेन तत् विधित्सुमिः ( भवद्भिः ) हास्यता एव सुलमा, साध्यम् तु न ( मलमम् ) / टीका-तत् तस्मात् कारणात् प्रसीदत यूयं मयि प्रसन्ना भवत, एतेन नः प्रार्थना नाङ्गीकृतेति खेदं दुःखम् मनसि न विधत्त कुरुत हि यतः मम मे इदम् दूत्यम् दूतकर्म अतिशयेन प्रसदशम अनुचितम् ( प्रादि स० ) अस्तौतिशेषः अनौपयिकेन न ओपायकेन ( नञ् तत्पु० ) अनुपायेन अस. दृशोपायेन अनुचितसाधनप्रयोगेषेति यावत् तत् कार्यम् दमयन्तीवरपरूपं विधिस्सुमिः चिकीषुमिः भवद्भिः हास्यता उपहासास्पदता एवं सुलमा सुपापा, साध्यम् प्रयोजनम् दमयन्तीवरणरूपम् न सुलमम् / मिव्यासाधनं प्रयुजाना मवन्तो नूनं हास्यतामेव गमिष्यन्ति, दमयन्ती च नैव लप्स्यन्ते इति मावः / / 115 // व्याकरण-दूत्यम् इसके लिए पीछे श्लोक 16 देखिए / सदशम् इसके लिए भी पीछे श्लोक 106 देखिए / हास्यता हसितुं योग्य इति हस्+ण्यत् , हास्यस्य माव इति हास्य+तल् +टाप् / सुलमा सुखेन लब्धुं योग्येति सु+Vलम् +खल+टाप् / औपयिकेन उपाय एवेति उपाय+ ठक ( स्वाथे ) और 'पा' को हस्व ('उपायाद्धस्वत्वं च' वा०)। विधिस्सुः विधातुमिच्छतीति वि+ Vधा+सन् + उ: (कर्तरि ) / साध्यम् साध्यते इति साध+णिच् +यत् / . ' भनुवाद-इसके लिए प्रसन्न हो जाइये, (मन में ) खेद न लाश्ये (कि इसने हमारा कहना नहीं माना ); दूत-कर्म बिलकुल अनुचित है / जो ( कार्य का ) उपाय-तरीका नहीं है, उसे अपनाना चाहते हुए आप लोगों की सहज हो हँसी ही होगी, काम तो नहीं बनेगा / / 115 // टिप्पणी-नल का यह बड़ा पुष्ट सशक्त तर्क है कि जब वह स्वयं ही दमयन्ती का ऐसा प्रत्याशी है, जिसे वह हृदय से चाह भी रही है, तो वह दूत बन कर उसे कैसे मना सकता है कि वह उसे न वरकर खलनायक इन्द्र अथवा खलनायकों में से एक को बरे ? यह काम तो इन्द्र को दूसरे से ही कराना चाहिये नल से नहीं, किन्तु खलनायक ऐसा क्यों करें ? क्योंकि उसे तो अपने मार्ग का काँटा नायक जो हटाना है इसलिए यह काम नायक ( नल ) द्वारा ही कराया जा सकता है, अन्य द्वारा नहीं। विद्याधर यहाँ हेतु अलंकार कह रहे हैं / इत्यभत्य में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ईदशानि गदितानि तदानीमाकलय्य स नलस्य बलारिः। शंसति स्म किमपि स्मयमानः स्वानुगाननविलोकनलोलः / / 116 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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