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________________ नैषधीयचरिते - टिप्पणी-हम पीछे ( श्लो० 77-78 में ) देख पाए हैं कि इन्द्र अपने को याचक मात्र बताकर चुप हो गया था। विशेष कुछ नहीं बोला। कारण यह था कि इतना मात्र कहने पर वह नल में प्रतिक्रिया देखना चाहता था। दान का अवसर आया देखकर नल में मझा क्यों अच्छी प्रति. क्रिया नहीं होती? क्यों वे प्रसन्न न होते ? वास्तव में दान माहात्म्य के सम्बन्ध में नल के मन में उठे जो उदात्त मावों के चित्र कवि ने यहाँ विस्तार के साथ खींचे है, वे उसके अपने व्यक्तिगत है। नल के माध्यम से उसने दान की महिमा वताकर मारतीय संस्कृति को वापी दो है। देवताओं के इदथ में यहाँ होदय बताया गया है, इसलिए विद्याधर के अनुसार भावोदयालंकार है / 'विचि' 'वोच' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। नास्ति जन्यजनकम्यतिभेदः सस्यमनजनितो जनदेहः / वीक्ष्य वः खलु तनूममृतादां निमजनमुपैति सुधायाम् // 94 // अन्वयः-जन्य-जनक-व्यतिमेदः न अस्ति, (तथा ) जन-देहः अन्न-जनित:--( एतदुभयम् ) सत्यम् ( अस्ति ); खलु अमृतादम् वः तनूम् वीक्ष्य ( मम ) दृक् सुधायाम् निमज्जनम् उपैति / टीका-पन्य कार्यम् च जनकं कारणम् च जन्यजनके (इन्द्र ) तयोः व्यतिभेदः विशेषेप अतिशयो मेदः ( प० तत्पु० ) न मस्ति न विद्यते, तथा जनस्य लोकस्य देहः शरीरम् (10 तत्पु.) भन्नेन खान जनितः उत्पन्नः (त. तत्पु० ) अस्ति-एतत् उभयम् सस्थम् यथार्थम् अस्तीति शेषः; मन यतः अमृतं सुधाम् अत्ति भक्षयतीति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु० ) वः युष्माकं तनम् देहम् वीच्य दृष्ट्वा ( मम ) क् दृष्टिः सुधायाम् अमृते निमज्जनम् ब्रुडनम् उपैति प्राप्नोति यथा अन्नादनात् मानवानां देहोऽन्नमयः; तथैव अमृतादनात् युष्माकं देवानां देहोऽप्यमृतमयोऽस्ति, अत एवामृतमये युष्मदेहे गता मम दृष्टिः अमृतस्नाता जाता युष्मान् दृष्ट्वा अमृतं भुक्त्वेवाहमानन्दमनुमवामीति मावः // 94 // व्याकरण-जन्यम् अन्यते इति / जन्+पिच् + यत् / जनकम् जनयतीति /जन्+पि+ बुझ्, दुको अक। व्यतिभेदः वि+अति +/मिद्+घञ्। अन्नम्- अद्+क्त, त को न ( मोनन ) यास्कानुसार 'अद्यते इति' / सत्यम् सतो माव इति सत्+ज्यम् / अमृताद अमृत+ अद् विवप् ( कर्तरि ) हक् पश्यतीति /दृश् + क्विप् ( कर्तरि ) / वः युष्माकम् के स्थान में बना वैकल्पिक रूप / निमजनम् नि+/मस्ज् + ल्युट् ( मावे ) यु को अन / अनुवाद-कार्य और कारण में विशेष अधिक मेद कोई नहीं होता है, ( तथा ) लोगों को देह . भन्न से उत्पन्न होती है-(ये दोनों बातें ) सत्य हैं, क्योंकि अमृत मक्षण करने वालो पाप लोगों की देह देखकर मेरी दृष्टि अमृत में स्नान कर रही है // 94 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने कार्य-कारण में अमेद बताकर सांख्य-दर्शन के सिद्धान्त को अभिव्यक्त किया है जिसके अनुसार मिट्टो या तन्तुओं के विशेष प्रकार के सन्निवेश के अतिरिक्त घट-पट की अपनी पृथक् कोई स्वतंत्र सत्ता सिद्ध नहीं होती जैसा कि नैयायिक लोग मानते हैं। अमृतमक्षण से बना हुआ देव-शरीर मी अमृत से मिन्न कैसे हो सकता है ? तभी तो
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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