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________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-उपेता उप+Vs+लुट अथवा+तन् ( तन्नन्त होने से 'परलोक' में दि०)। उदयव-उत्+Vs+शतृ / बन्धुः-बध्नातीति Vबन्ध+( कर्तरि ) / निनीति नि+ नी+सन्+लट। भनुवाद-हाय ! यह (बेचारा ) व्यक्ति मरने पर धन छोड़कर अकेला ही परलोक जा रहा है, इस कारण हृदय में दया भाव रखे याचक रूपी बन्धु इसका धन परलोक ले जाना चाह रहा है // 81 // ___ टिप्पणी-यहाँ कवि ने अपना धन देते समय याचकों को सौंपते हुए व्यक्ति के लिए अपना पुराना स्थान छोड़ कर दूसरे स्थान में जा रहे व्यक्ति का सामान साथ में ले जाने वाले बन्धु मित्रों का अप्रस्तुत-विधान किया है, इस तरह याचक पर बन्धुत्व का आरोप होने से रूपकालकार है। विद्याधर खलु शब्द को उत्प्रेक्षावाचक भानते हैं और कवि की यह कल्पना ही कह रहे हैं कि मानों याचक लोग बन्धुमों की तरह दाता का धन परलोक ले जाना चाह रहे हो, लेकिन हमारे विचार से यह निरी कवि-कल्पना नहीं है। बल्कि हमारे यहाँ एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक तथ्य है / दिया हुआ दान अवश्य लोकान्तर में दाता को कई गुना होकर मिल ही जाता है। इस बात को स्यं कवि अगळे श्लोक में स्पष्ट कर रहा है। माषान्तर से यही बात 'शानघर-पद्धति' में भी कही गई है'अदाता पुरुषस्त्यागी धनं संत्यज्य गच्छति / दातारं कृपणं मन्ये मृतोऽप्यर्थ न मुञ्चति' ! शब्दालंकारों में 'लोक' 'लोक' 'धने' 'धन' 'दयद्' 'दय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / दानपात्रमधमणमिहैकमाहि कोटिगुणितं दिवि दायि / साधुरेति सुकृतैर्यदि कर्तुं पारलौकिककुसीदमसीदत् // 9 // अन्वयः-इह एक-ग्राहि दिवि कोटि-गुणितम् दायि ( च ) दान-पात्रम् अधमर्षम् पुण्यैः पार. लौकिक-कुसीदम् प्रसीदत् कर्तुम् यदि ( कश्चित् ) एति, ( तहिं ) साधुः ( एति ) / टीका-इह अस्मिन् लोके एकम् एकत्वविशिष्टं वस्तु गृह्णाति आदत्ते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) दिवि स्वर्गे च कोटया कोटिसंख्यया गुणितम् आहतम् आवृत्तमिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) दायि दायकम् दानस्य पात्रम् प्रतिग्रहीतारम् याचकमिति यावत् ( 10 तत्पु० ) अधमणम् ग्राहकम् ऋपगृहीतारमित्यर्थः ( 'उत्तमर्याधमखों द्वौ प्रायोक्तृ-ग्राहको क्रमात्' इत्यमरः ) पुण्यः द्रष्य. दानात्मकः सत्कर्मभिः पारलौकिकम् परलोकमवम् कुसीदम् वृद्धिजीविकाम् ('कुस्तीदं वृद्धिजीविका इत्यमरः ) ( कर्मधा० ) असीदव न सीदव अविनश्यत् , अविनश्वरमिति यावत् कर्तुम् विधातुम् / यदि चेत कश्चित पुरुषः एति प्राप्नोति, तहिं साधुः सज्जन एव एति, नान्यः / एतादृश ऋणग्रहोता, य इह एकं गृह्णाति अमुत्र च सकुसीदं कोटिगुपितं ददाति, पुण्येनेव साधुमिः प्राप्यते इति मावः // 92 // ___ व्याकरण- अस्मिन् (स्थाने ) इति इदम् +ह, इदम् को आदेश / प्राहि ग्रहीतुं शोक, मस्येति /ग्रह+पिन् ( ताछील्ये ) / दायि, ददातीति /दा+पिन् ( आवश्यकापमण्यंबोषिनिः श३।१७०), माधमयं अर्थ में षष्ठी-निषेध होकर गुपितम् में द्वि० ('अंकेनो:० 2 / 3 70) /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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