SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमसर्गः सलिलं जलं दीयते संकल्यार्थ अथिनो हस्ते प्रक्षिप्यते इत्यर्थः सा संकल्पजलदानक्रिया भयंनस्य पाचनस्य या उक्तिः देहीति वचनम् तस्य विफलस्वे बैयथ्य ( उभयत्र 10 तत्पु०) या विशा तको विचार इत्यर्थः (स० तत्पु० ) तया यः त्रासः तज्जनितं मयम् ( तृ० तत्पु०) तेन मूछन मोहः तस्य चिकित्सितं प्रतिक्रिया ( 10 तत्पु० ) अस्तीति शेषः। देहाति यन्मयाऽस्याग्रे कथितम् तत् कदाचिद् विफलीभवेत् इति शंकया त्रस्यतो, मूर्च्छतोऽपमृत्युं च गच्छतो याचकस्य हस्ते संकल्पजल-स्थापनमेव समुचिता चिकित्सा, मूजिनिष्यमायापमृत्युः जलप्रक्षेपेणेव निवायते इति भावः // 85 // व्याकरण-प्रदेयम् प्रदातुं योग्यमिति प्र+/दा+यत् / अर्थनम् अर्थ+ल्युट ( मावे)। अपमृत्युः अप = अपकृष्टो मृत्युरिति ( प्रादि स०)। चिकित्सा/कित् + सन्++टाप् / अनुवाद-दानियों द्वारा देय वस्तु को समीप लाकर याचक-जन को ( संकल्प में ) ब्रो जक दिया जाता है, वह याचना-वचन के बेकार चले जाने की शंका से उत्पन्न मय के मारे मूञ्छित हो रहे ( याचक ) की (संभावित अकाल मृत्यु का ) इलाज है / / 85 // टिप्पणी-याचना को शास्त्रों में बड़ा बुरा माना गया है। याचना करते ही मन का सारा सत्व जैसे चला जाता है, देखिए-'देहोति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्च देवताः। मुखानिर्गत्य गच्छन्ति मो-हो-धी धृति-कीर्तयः' / कस्यों ने तो याचना को मृत्यु की बराबरी में रख दिया है-'गतेभेनः स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम्। मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके' / कवि ने मी याचक का ऐसा हो चित्र यहाँ खींचा है। याचना-जनित अपमृत्यु से बचाने हेतु दानी को चाहिए कि वह तत्काल संकल्प-जल हाथ में लेकर याचित वस्तु उसके हाथ सौंप दे। जो व्यक्ति ऐसा नहीं करता, देने से इनकार कर देता है, याचक के साथ-साथ उसे भी महादानी हिन्दी के प्रसिह कवि रहोम ने मृत हो कहा है-'रहिमन वे नर मर चुके, जो कहिं मांगन जाहिं। उनसे पहले वे मरे, निन मुख निकसत नाहिं' // विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है, जिसे हम नहीं समझ पाए / संकल्प जलदान क्रिया पर अपमृत्युचिकित्साव के आरोप से वे यदि रूपक कहते, तो कुछ बात भी थी। हमारे विचारानुसार तो यहाँ उत्प्रेक्षा है, क्योंकि कवि ने जलदानक्रिया पर चिकित्सा को यह कल्पना की है कि माना मू जनित अपमृत्यु के इलाज के लिए जलप्रक्षेप किया जा रहा हो। समावना-वाचक शब्द के अभाव में उत्प्रेक्षा गम्य ही है, वाच्य नहीं। 'नोय' 'न्यै' और 'मर्षि' 'सार्थ' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अर्थिने न तृणवद्धनमात्र किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवजलदायी द्रव्यदानविधिरुक्तिविदग्धः // 86 // अन्धयः-कुशवज्जलदायो उक्तिविदग्धः द्रव्यदानविषिः एवम् आह-'अधिने तृपवत् धनमात्रम् न, किन्तु जीवनम् अपि प्रतिपाद्यम्'। : टीका-कुशो दर्भः अस्मिन्नस्तोति तथोक्तम् सकुशमित्यर्थः जलं सलिकम् ( कर्मधा० ) दापयति अर्थिने दातुं प्रेरयतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) को वचने विदग्धः चतुरः श्छेषोक्तिपूर्ण इत्यर्थः
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy