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________________ द्वितोयसर्गः परिमृज्य भुजाग्रजन्मना पतगं कोकनदेन नैषधः / मृदु तस्य मुदेऽकिरगिरः प्रियवादामृतकपकण्ठजाः // 50 // अन्वयः-नैषधः भुजाग्रजन्मना कोकनदेन पतगम् परिमृज्य तस्य मुदे प्रिय...जाः गिरः मृदु अकिरत् // ' टीका-नैषधः निषधाधिपतिनलः भुजस्य बाहोः यत् अग्रम् प्रान्त इत्थर्थः ( 10 तत्पु० ) तस्मात् जन्मोत्पत्तिः (पं० तत्पु०) यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) कोकनदेन रक्तकमलेन रक्तकमलसदृशकरेगेत्यर्थः पतगं पक्षिणं हंस परिमृज्य संस्पृश्य तस्य हंसस्य मुदे हर्षाय प्रियो मधुरो यो वादः वचनम् ( कर्मधा० ) एवामृतं सुधा ( कर्मधा० ) तस्य कूप उदपानम् आकर इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) तद्भूतः कण्ठः गलः ( कर्मधा० ) तस्माज्जायन्ते इति तथोक्ताः ( उपपद-तत्पु०) गिरो वाबो मृदु कोमलं यथा स्यात्तथाऽकिरत् कीर्यवान् मधुरवचनामृतैरसिञ्चदित्यर्थः / / 50 // व्याकरण-नैषधः निषधानाम् अयमिति निषध+अण ( सम्बन्धमात्रे ) / मल्लिनाथ ने 'निषधानां राजा नैषधः नल:' यो 'जनपदशब्दात् क्षत्रियादम्' ( 4 / 1 / 168) से अञ् किया है किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि निषध शब्द नादि (नकार आदि में ) होने से 'कुरुनादिभ्यो ण्यः' ( 4 / 1 / 172 ) से ण्य प्रत्यय का विषय है अतः 'नंषध्यः' बनेगा। सम्बन्ध-सामान्य में 'अण' प्रत्यष से प्रकरणवश नेषध शब्द नल-परक हो जाएगा अथवा स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध से नल में लक्षणा हो जाएगो / मुद्/मुद्+विप ( भावे ) / अनुवाद-निषिधाधिप ( नल ) ने भुजा के अग्रभाग में उत्पन्न हुए रक्त कमल ( रक्तकमलसदृश हाथ ) से पक्षों ( हंस ) को सहलाकर उसके हषहेतु मधुर वचन-रूपो अमृत के कूप रूपी कण्ठ से निकली मृदु वायो कही / / 50 // ___ टिप्पणी-यहाँ पूर्वार्ध में हाथ के साथ रक्त कमल का अमेदाध्यवरताय करने से मेदे अभेदातिशयोक्ति है। उत्तरार्ध में पियवाद पर अमृतत्व और कण्ठ पर कपत्व के आरोप से बने परम्परित रूपक की अतिशयोक्ति के साथ संसृष्टि है / शब्दालंकार 'मृदु' 'मुदे' म छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। न तुलाविषये तवाकृतिन वचोवर्मनि ते सुशोलता / स्वदुदाहरणाकृतो गुणा इति सामुद्रकसारमुद्रणा // 51 // अन्वयः-(हे हंस ! ) तब आकृतिः तुला-विषये न ( अस्ति ); ते सुशीलता व चोवम॑नि न ( अस्ति ); ( अत एत्र ) 'आकृतो गुगाः' इति सामुद्रिक-सारमुद्रणा बदाहरणा ( अस्त ) / टीका-(हे हंस,) तव ते आकृतिः आकारः स्वरूपमित्यर्थः तुलायाः तुलनाया उमाया इत्यर्थः विषये गोवरे ( 10 तत्पु. ) न अस्तीति शेषः उपमानस्याभावात् ; ते तव सुशोलना सोशोल्यं साधुस्वभावत्वमिति यावत् वचसा बाण्या वमनि मागें ( 10 तत्पु० ) न, वाचामगोचरोऽस्तीत्यर्थः. ( अत एव ) 'आकृती गुपाः' अर्थात् “यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति" इति सामुद्रिकस्य सामुद्रिक शास्त्रस्य यः सारः तत्त्वम् रहस्यमिति यावत् (10 तत्स० ) तस्य मुद्रणा मुद्रणचिहं नियमनमित्यर्थः
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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