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________________ पञ्चमसर्गः 331 मिनेः ताप-मरणे जनेः उत्पत्तः की जनिका हेतुरित्यर्थः (10 तत्पु० ) अनलता स्वस्मिन् अग्नित्वम् माभूत् नासात् अर्थात् सोऽग्निरस्तीति तत्र तापः स्वाभाविक इति नासीत् तत्तापकारणम् तदपि तथापि हेतुः कारणं तु अनलता अग्नित्वम् अथ च न नलः अनलः ( नञ्तत्पु० ) तस्व मावः तत्ता एवासोत् अर्थात् 'अहं नलो नास्मि, यदि नलः स्याम् तदेव दमयन्ती मां वृणुयादिति' बात्मनि नलवाभावं विचिन्त्याग्निः मनसि संतापं दुःखमिति यावत् बमारेति भावः / / 66 / / व्याकरण-दहनः दहतीति /दह + ( नन्द्यादित्वात् ) ल्युः ( कर्तरि ) यु को अन / रूपधेयम् रूपम् एवेति रूप+धेय ( स्त्राथें ) / जनिः /जन्+इन् ( मावे ) / मा भूत माङ के योग में लुङ और अडागम का निषेध / अनवाद--अग्निदेव इस ( नल ) के सौन्दर्यातिशय का विचार करके सचमुच जो ताप धारण कर बैठा, उसका कारण यह नहीं था कि वह अनल ( आग ) है, तथापि उसका कारण तो यही था कि वह अनल ( नल नहीं ) है / / 63 / / ____ टिप्पणी--अग्नि नल का सौन्दर्यातिशय देखकर अकबका गया और मनमें सोचने लगा काश, मैं नल होता ! मैं नल नहीं हूँ, अनल-नल-भिन्न हूँ। दमयन्ती इस सौन्दर्य की पराकाष्ठा के आगे क्यों मुझे वरेगी ?' इसमें अग्नि को बहुत ताप-मानसिक दुःख हुआ। कवि ने ताप और भनक शब्दों को श्लिष्ट बनाकर यहाँ विरोधाभास खड़ा कर दिया है। ताप का एक अर्थ गर्माहट और दूसरा मानसिक दुःख है। इसी तरह अनल का एक अर्थ आग और दूसरा नल-मिन्न है। अग्नि में ताप अनलता ( अग्नित्व) के कारण नहीं प्रत्युत वह अनलता के कारण ही है। ये दोनों बात परस्पर विरुद्ध हैं / ताप का दुःख और अनलता का नल-मिन्नस्व अर्थ लेकर विरोध-परिहार हो जाता है। इस तरह यहाँ दिरोधामास अलंकार है / 'नलता' 'नलतै' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। कामनीयकमधकृतकामं काममक्षिमिरवेक्ष्य तदीयम् / कौशिकः स्वमखिलं परिपश्यन् मन्यते स्म खलु कौशिकमेव / / 64 // अन्धयः-कौशिकः अषःकृतकामम् तदीयम् कामनीयकम् कामम् अक्षिमिः अवेक्ष्य ( अब ) स्वम् अखिलम् परिपश्यन् खलु कौशिकम् एव मन्यते स्म / / 64 / / टीका--कौशिक:: इन्द्रः अधःकृतः तिरस्कृतः सौन्दर्येण अतिशयित इत्यर्थः काम: मदनः ( कर्मवा० ) येन तयाभूतम् (ब० नो०) तदीयम् नलीयम् कामनीयकम् सौन्दर्यम् कामम् सम्यक् यथा स्यात्तथा अक्षिमिः स्वसहख नेत्ररित्यर्थः अवेचय दृष्ट्वा, (अथ ) स्वम् आत्मानम् अखिलम् कारस्न्येन यथा स्यात्तथा परिपश्यन् परितो विलोकयन् खलु निश्चितं कौशिकम् ग्लूकम् ('महेन्द्र-गुग्गुल्लक-व्यायाहिषु कौशिकः' इत्यमरः) मन्यतेस्म अवगच्छति स्म / इन्द्रो निजसहस्रनेत्रैः नछम् आपादमस्तकं सम्यग् दृष्ट्वा, पुनः स्वशरोरमपि सहस्रनेत्रतवैरूप्यं निरूप्यारमानं नलस्याग्रे उलूकमिव मन्यते स्मेति मावः / / 64 // ग्याकरण--कौशिकः कुशिकस्य सत्यं पुमान् इति कुशिक+मश् / तदीयम् तस्येदमिति तत् + , छ को ईय / कामनीयकम कममीयस्य मानः इति कापनाय+बुभ् + का अक।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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