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________________ पञ्चमसर्गः 36. घोड़ों का आशय समझने में चतुर और आँखों के जन्म के फल-रूप नळ को रथमें पहचान गए / / 60 // टिप्पणी-विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह गए, जो हम नहीं समझे। हो, नल पर नेत्रजन्म. फलत्व का अरोप होने से रूपक हो सकता है। 'तुरं' 'तुर', बुबुधिरे, 'विबुधे' में ( बवयोरभेदात् ) छेक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। वीक्ष्य तस्य वरुणस्तरुणत्वं यदभार निबिडं जडभूयम् / नौचिती जडपतेः किमु सास्य प्राज्यविस्मयरसस्तिमितस्य // 61 // अवन्य-वरुपः तस्य तरुषत्वम् वीक्ष्य यत् निबिडम् जडभूयम् बमार, सा प्राज्य"तस्य अस्व जलपते: औचिती न किमु ? टीका-वरुणः जलाधिष्ठातृदेवता तस्य नलस्य तरुणत्वम् तारुण्यं सौन्दर्यातिशयमरितं यौवनमित्यर्थः वीक्ष्य विलोक्य यत् निबिडम् धनम् अत्यन्तमिति यावत् जहभूयम् जडत्यम् स्तब्धत्वमित्यर्थः बमार दधौ स्वापेक्षयाऽधिकसुन्दरं नलं दृष्ट्वा स्तब्धीमूतो वरुणः सत्येतस्मिन् कथं दमयन्ती मां बरिष्यतीति चिन्ताकुलोऽमवदिति मावः / सा वरुणस्य जडता प्राज्यः प्रभूतः यो विस्मयः आश्चर्यम् एव रसः भावः ( उभयत्र कर्मधा० ) तेन स्तिमितस्य निश्चलस्य जलपतेः जलाधिष्ठातुः अथ च डलयोर भेदात् जडपतेः बडानाम् स्तब्धानाम् पत्युः अत्यधिकजडस्येत्यर्थः भौचिती औचित्यं न किमु ? नास्ति किम् ? अपि तु अस्येवेति काकुः नलसौन्दर्यातिशयविलोकनेन आश्चर्यचकितस्य जल(ड) पतेः स्तम्भः समुचित एवेति भावः // 61 // ___ व्याकरण-जलभूयम् नडस्य भाव इति जड+VS+क्यप् (मावे ) / स्तिमितस्य। स्तिम् + क्तः ( कर्तरि ) / भौचिती उचितस्य भाव इति उचित+ध्य+डोप ( स्त्रियाम् ), यकार का लोप / सास्य उद्देश्यभूत 'जडभूय' से सम्बन्ध रखनेवाले 'तत्' शब्द को यहाँ नपुसकलिंग में रखना चाहिए था, किन्तु स्त्रीलिंग में रखा गया है, जिसका समाधान मल्लिनाथ ने यह किया है'विधेय-प्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गता'। अनुवाद--वरुण नल का यौवन देखकर जो हक्का-बक्का रह गया, वह बड़े भारी आश्चर्य माव से निश्चल बने जल ( ड ) पति के लिए उचित नहीं था क्या ? / / 61 // टिप्पणी--यहाँ कवि ने 'डलयोरभेदः' नियम के अनसार जलपति शब्द में श्लेष रखा हुआ है। नल का अद्भुत सौन्दर्य देखकर वरुप को 'स्तम्भ' नाम का साविक भाव हो उठा, जिसे जड़माव मो कहते हैं और जिसमें व्यक्ति पथरा जाता है। आश्चर्य में मुंह बाये रह जाता है। जलपति को जड़ अर्थात् अत्यन्त जड़ बना मानकर उसका जड़भाव स्वाभाविक ही है। जड़ शब्द का अर्थ 'शिशिरो जडः' इस अमरकोष के अनुसार हम यहाँ ठंडा भी ले सकते हैं अर्थात् वरुप दमयन्ती-वरप-विषयक उत्साह में ठंडा पड़ गया कि वह मुझे क्या वरेगो / मला, वह क्यों न ठंडा पड़े जलपनि जो ठहरा। जल ठंडा होता ही है / यहाँ श्लेषालंकार है / 'रुण' 'रुण' 'जड' जल' में ( डलयोरभेदात् ) यमक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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