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________________ 33. नैषधीयचरिते लज्जादेहर्षायाकारगुप्तिः अवहित्या' तथा रसगं०'ब्रीडादिना निमित्तन हर्षायनुमावानां गोपनाय जनितो भाव-विशेषोऽवहित्थम्'। मेनका के इस आकार-गोपन पर कवि ने 'पुटपाक' की कल्पना की है। आयुर्वेद-शास्त्र में 'पुटपाक' औषध बनाने को एक प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें दो सकोरे लेकर उनके भीतर या पत्तों के भीतर औषध को वस्तुये रखदी जाती हैं और बाहर से कपड़ा रुपेट कर गीली मिट्टी से खूब लीप देते हैं। उसे फिर आग में डाल देते हैं। सकोरों के बाहर आग तो दीखती नहीं, किन्तु मौतर को ओषधि पकती रहती है। मेनका का हृदय मी विरह-तापके कारण मीतर ही भीतर खौलता रहता था किन्तु बाहर प्रकट होने वाले उसके चिह्नों को वह छुपाए रहती थी। गंभीर प्रकृति को नायिका जो ठहरी। इस तरह एक तरफ तो ताप का वेग और दूसरी और उसे छुपाने का प्रयत्न -ये दोनों सकोरे जैसे थे। इसी तरह के वियोग में राम के हृदय के मोतर खौल रहे तापकी पुटपाक से तुलना मवभूति ने भी कर रखी हैं- “अनिभिन्नो गभीरत्वादन्तरोंढवनव्यथः / पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुषो रसः" (31) / श्लोक में उत्प्रेक्षा है। जिसका वाचक शब्द स्फुट है। 'मेन' 'मन' में छेक, 'त्याम्' 'त्थाम्' में छेक के साथ 2 पादान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा तरक्षणस्तिमितभावनिभेन / शक्रसौहृदसमापनसीम्नि स्तम्भकार्यमपुषद्वपुषैव // 52 // अन्वय-गुण-वशीकृत-विश्वा उर्वशी तत्क्ष भेन शक "सीम्नि स्तम्भ-कार्यम् वपुषा एव अपुषत् / __टीका-गुणेः सौन्दर्यादिमिः वशीकृतम् अवशं वशं सम्पद्यमानं कृतमिति विश्वं जगत् (कर्मधा० ) यया तथाभूता ( ब० वी० ) उर्वशी अप्सरोविशेषः स चासौ क्षणः तस्मणः ( कर्मधा० ) तस्मिन् तत्क्षप्पमित्यर्थः यः स्तिमितमावः ( स० तत्पु०) स्तिमितायाः स्तब्धतायाः जडताया भावः (10 तत्पु० ) निश्चलस्वमित्यर्थः तस्य निभेन व्याजेन ( 'मिषं निमञ्च निर्दिष्टम्' इति हलायुधः) शक्रस्य इन्द्रस्य सौहृदस्य स्नेहस्य यत् समापनम् समाप्तिः तस्य सीम्नि सीमायाम् ( सर्वत्र प० तत्षु० ) स्तम्भस्य स्थाप्योः ( स० तत्पु० ) कार्यम् प्रयोजनम् वपुषा शरीरेण एव अपुषत् अकरोदित्यर्थः। उर्वशी इन्द्रगमनं श्रत्वा स्तब्धा निश्चलेति यावत् जाता, शरीरतो निश्चलासती च सा इन्द्रस्नेहसमाप्तिसीमाबोधकस्य निश्चलस्तम्मस्य कार्यमकरोत् अतिचिन्तिताऽभवदिति मावः // 52 // व्याकरण-स्तिमित-/स्तिम् + क्तः ( कर्तरि ) / गुणवशीकृतः वश+चिः ( अभूत. तद्भाव में ) दीर्घ/+क्त। सौहृदम् सु- सुष्ठु हृदयं यस्य ( ब० बी०) सुहृदयः तस्य माव इति सुहृदय+अण। हृदय को हृदादेश और विकल्प से आदि पद में वृद्धि दोनों पदों में वृद्धि होने पर सौहार्दम् बनेगा। समापन सम् +/आप+ल्युट ( भावे ) / स्तम्भः / स्तम्म् +अच् ( भावे ) / अपुषत्- पुष्+लुङ् / ___ अनुवाद-( सौन्दर्यादि ) गुणों द्वारा जगत् को वश में किये उर्वशी तरक्षण ( पत्थर के-से ) निश्चलत्व माव के बहाने इन्द्र के प्रेम की समाप्ति की सीमा के खम्भे का काम शरीर से ही कर बैठी // 52 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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