SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयसगः रात्रिं करोतीति निशाकरश्चन्द्रः ( उपपद तत्पु०) तस्य विषा दोप्त्या ( 10 तत्पु० ) सह योगः कमदेन कैरवेण इव त्वया नलेन न सुलभः सुपापो दुर्लभ इत्यर्थः / देवैरपि काम्यमाना दमयन्तो तव कृते. तथैव प्राप्तुं कठिना यथा मेघाच्छन्ने नमसि कुमुरस्य कृते चन्द्र-ज्योत्स्नेति भावः / / 46 / / व्याकरण-काम्यमानयाकम् +शानच ( कर्मवाच्य ) / सुलभ सु+Vलभ् +खल् / सम्बुदः अम्बु+/दा+कः ( कर्तरि ) / निशाकरः निशा+/+2: ( कर्तरि ) / विषा/ विष् +क्विप् ( मावे ) त० ए० / 'अनुवाद-देवताओं के द्वारा (भी) चाहे जाने वाली इस ( दमयन्ती ) के साथ तुम्हारा योग इस प्रकार सुलभ नहीं जैसे वर्षाकाल में मेघों द्वारा ढको चन्द्र-दीप्ति के साथ कुमुद का योग / / 46 / / टिप्पणी-यहाँ उपमेय और उपमान के धर्म विभिन्न होने पर भी उनका परस्पर बिम्ब-पतिबिम्बमाव होने से सादृश्य में पर्यवप्तित हुई उपमा है, जिसके साथ 'सुरकाम्यमानत्व' कारण के प्रति. पादन से बने कालिङ्ग का संकर है। शब्दालंकार 'नया' 'नया' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तदहं विदधे तथा तथा दमयन्त्याः सविधे तव स्तवम् / हृदये निहितस्तया भवानपि नेन्द्रेण यथापनीयते // 17 // अन्वयः-तत् दमयन्त्याः सविधे तब स्तवम् तथा तथा विदघे यथा तया हृदये निहितः मवान् इन्द्रेण आप न अपनीयते / टोका-तत् तस्मात् कारणात् तस्या: सुलमत्वामावादपीत्यर्थः दमयन्त्याः सविधे समीपे तव ते स्तवं स्तुति तथा तथा तेन तेन प्रकारेण विदधे करिष्यामि यथा येन प्रकारेण तया दमयन्त्या हृदये मनसि निहितः स्थापितो भवान् त्वम् इन्द्रेण शक्रेणापि नापनीयते न दूरीक्रियते / इन्द्रादप्यधिको तव स्तुति विधाय त्वय्याकृष्ट करिष्ये इति भावः / / 47 // व्याकरण-स्तवः स्तु+अप् ( मावे ) / विदधे वर्तमानसमीपस्थ मविष्य को 'वर्तमान. सामीप्ये वर्तमानवद्वा' (3 / 3 / 131) से लट् लकार / निहित नि+Vधा+क्तः (कमणि) धा को हि / अनुवाद-इसलिए मैं दमयन्ती के समीप तुम्हारी इस इस तरह प्रशंसा करूँगा कि जिससे उसके द्वारा हृदय में स्थापित किये हुए आपको इन्द्र तक भा न हटा सके / / 47 // टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कहा है किन्तु हमारी समझ में नहीं आता कि यहाँ अतिशयोक्ति कैसे हुई। हाँ 'इन्द्रेणापि' में अपि शन्द से 'औरों को तो बात ही क्या'-यह अर्थ निकलने से अथोपत्ति अवश्य है / 'तथा तथा' में वीप्सालंकार और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तव समतिमेव केवलामधिगन्तुं धिगिदं निवेदितम् / ब्रुवते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् // 48 // अन्वयः-अत्र केवलाम् तव सम्मतिम् अधिगन्तुम् इदं निवेदितं धिक् हि साधवः निजोपयोगिताम् फलेन ब्रुवते, न तु कण्ठेन / टीका-अत्र अस्मिन् विषये केरलाम् एकाम् तब ते सम्मतिम् स्वीकृतिम् अधिगन्तुं प्राप्तम् इदम्
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy