________________ पञ्चमसर्गः 327 अन्वयः-मघोनि दिवम् उच्चरमाणे ( सति ) रम्मया यः मलिनिमा अलम् अलम्मि, स वर्ण एव खलु अस्याः अन्तरम् उज्ज्वलम् ( सत् )) भङ्गया शान्तम् अमाषत / ___टीका-मघोनि इन्द्रे दिवम् स्वर्गम् उच्चरमाणे उत्सृज्य गच्छति सति रम्भया एतन्नाम्न्या देवाङ्गनया यः मलिनिमा मालिन्यम् कालिमेत्यर्थः अलम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा अलम्मि प्राप्तः स वर्णः कालिमा एव खलु व अस्याः रम्भायाः प्रान्तरम् हृदयम् उज्ज्वलम् रोषकारणात् प्रज्वलितम् सत् माया प्रकारान्तरेण शान्तम् निर्वाणम् अभाषत असुचयदित्यर्थः, इन्द्रं मानुषीममिलषन्तं श्रुत्वा क्रोधेन प्रज्वलितं रम्भायाः हृदयं पश्चात् तस्मिन् भुवं गच्छति सति प्रज्वलत्-काष्ठवत् शान्तम् निर्वापितमिति यावत् भूत्वा मलिनीबभूव तस्य मालिन्यं च केनापि प्रकारेण वहिः शरीरे प्रादुर्भवदेतत् रहस्यं व्यनक्ति स्मेति भावः // 40 // व्याकरण-मघोनि मघवन् + डि, सम्प्रसारण, गुण / उच्चरमाणे उत्+/चर्+शानच् , 'उदश्चरः सकर्मकात्' ( 11356 ) से आत्मने। मलिनिमा मलिनस्य भाव इति मलिन+इमनिच् / इमनिजन्त पुल्लिंग होते हैं। अलभ्भि /लम् +लुड् ( कर्मवाच्य ) विकल्प से मुमागम / शान्तम् Vशम् +णिच् +क्त ('वा दान शान्त०' 7 / 2 / 27 से विकल्प से निपातित निष्ठा अन्यथा शामितम् ) / अनुवाद-इन्द्र के स्वर्गलोक छोड़ ( भूलोक ) जाते हुए रम्भा ने ( शरीर में ) जो बड़ी मारी कालिमा प्राप्त की, वह ( कालिमा ) रंग ही मानो उसके ( क्रोध में ) जल रहे हृदय को प्रकारान्तर से बुझा हुआ बता रहा था / / 48 // टिप्पणी-रम्भा के शरीर पर एकदम कालिमा व्याप गई। चेहरा सारा काला पड़ गया। इससे अनुमान किया जा सकता था कि क्रोध में जलता हुआ उसका हृदय मानो ठंडा पड़ गया है। लकड़ी बुझकर काली पड़ जाती है। यह कवि की कल्पना है कि भीतरी कालापन ही किसी तरह मानो बाहर सारे शरीर में प्राया हुआ हो। इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक यहाँ खलु शब्द है। क्रोध-शमन होने से यहाँ हम माव-शमन अलंकार मौ कहेंगे। लेकिन नारायण श्लेष मानकर उज्ज्वल शब्द से शृंगार और शान्त शब्द से शान्तरस भी ले रहे हैं अर्थात् जो हृदय पहले उज्ज्वल शृंगाररस-पूर्ण ( 'शृंगारः शुचिरुज्ज्वलः' इत्यमरः) रहा करता था, वह अब शान्तरसपूर्ण हो बैठा है-यह शरीर की कालिमा बता रही यो। विद्याधर शान्त शब्द से निवेद नाम का व्यभिचारी भाव लेते हैं और हृदय में इस भाव के उदय होने से यहाँ भावोदथ अलंकार कह रहे हैं। यहाँ 'मलि' 'माल' 'मल' में वर्षों की एक से अधिक बार आवृत्ति होने से अन्यत्र की तरह वृत्त्यनुपास, और 'शान्त' 'मान्त' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है। जीवितेन कृतमप्सरसा तप्राणमुक्तिरिह युक्तिमती नः / इत्यनक्षरमवाचि घृताच्या दीर्घनिःश्वसितनिर्गमनेन / / 49 // भन्धयः-'अप्सरसाम् नः जोवितेन इह कृतम् , तत् प्राण-मुक्तिः युक्तिमती' इति पृताच्या दीर्घ.."नेन अनक्षरम् अवाचि !