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________________ पामसर्गः अहः अहः वीप्सायां द्वित्वम् , कालात्यन्तसंयोगे द्वि० / मृगया मृगं यान्ति अनयेति मृग+या+क ( करणे ) / अभिनिवेशः अभि+नि+/विश्+घञ् ( मावे ) / अनुवाद-उस ( दमयन्ती) का शैशव समाप्त होने के दिन से लेकर कामदेव में चढ़ते यौवन वाळे राज-मण्डल का चाव के साथ शिकार खेलने का आग्रह प्रतिदिन जोर पकड़ गया है। टिप्पणी-यहाँ मी विद्याधर अतिशयोक्ति मान रहे हैं सम्भवतः इसीलिए कि दमयन्ती का युवा होना और राजाओं का काम के वशीभूत होना-दोनों को यहाँ युगपत् बताया गया है, जो कार्यकारण माव के पौर्वापर्य विपर्यय में आ जाता है। वास्तव में पहले दमयन्ती युवा हुई, पीछे राजामों में कामोद्रेक हुमा / 'अहरहः' में वीप्सालंकार और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। इस्यमी वसुमती कमितारः सादरास्वदतिथिर्मवितुं न / भीमभूसुरभुवोरभिलाषे दूरमन्तरमहो नृपतीनाम् // 34 // अन्वयः-इति वसुमतीम् कमितारः स्वदतिथीभवितुम् न सादराः ( सन्ति ) नृपतीनाम् मीमभूसुरभुवोः प्रमिलाषे दूरम् अन्तरम् अस्तीत्यहो! टीका-इति एतत्कारणात् वसुमतीम् पृथिवीम् कमितारः इच्छुका भूपा इत्यर्थः तव अनतिथयः अतिथयो सम्पद्यमाना (10 तत्पु०) भवितुम् इति तवातिथ्यं ग्रहीतुमित्यर्थः न सादराः सामिलाषाः सन्तीति शेषः। नृपतीनाम् राशाम् मीमः एतन्नामा राजा भूः उत्पत्तिस्थानं यस्याः तथाभूता (20 बी०) दमयन्ती च सुराणां देतानां भूः भूमिः स्वर्ग इत्यर्थः ( 50 तरपु०) चेति तयोः (इन्द्र) प्रमिलाषे अनुरागे दूरम् अत्यन्तम् यथा स्यात्तथा अन्तरम् मेदः तारतम्यमिति यावत् अस्तीति शेषः / एकतः युद्ध मृत्वा स्वर्ग सुराङ्गना-प्राप्तिः, अपरतश्च युद्धे अमृत्वैव भुवि सुराङ्गनाभ्योऽप्यतिसुन्दाः दमयन्त्याः प्राप्तिरित्येतयोः अमिलाषस्य विकल्पयोः दमयन्तीप्राप्तः अभिलाषः वरम् , न पुनः स्वर्गप्राप्तेरिति राशं विचारोऽस्तीति मावः // 34 // व्याकरण-कमितारः कामयन्ते इति /कम् +तृन् ( विकल्प से पिङमाव ) तृन्नन्त होने से वसुमती में दितीया, षष्ठी तृनन्त में ही होती है / भतिथीभवितुम् अतिथि+/भू+च्चि, दीर्घ+ तुम् / सुरः-यास्काचार्य के अनुसार सुशोमनं तत्त्वम् अस्मिन्नस्तीति सु+रः (मतुवर्थ ) अर्थात् देवताओं को बनाने में स्रष्टाने अच्छे उपकरण-उपादान का उपयोग किया था। जिन्हें बुरे उपादान से बनाया वे असुर हुए। अनुवाद-यही कारण है कि पृथिवी को चाहने वाले ( राजे ) तुम्हारा अतिथि बनने का चाव नहीं रखते / राजाओं की दमयन्ती ( पाने ) की अमिलाषा और स्वर्ग ( पाने ) की अभिलाषा दोनों में बाप रे ! आकाश-पाताल का अन्तर है / / 34 // टिप्पणी-कलह-प्रिय होने के कारण नारद इन्द्र को मड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ते। वे कहते हैं-'जान खोकर तुम्हारे यहाँ स्वर्ग में आकर राजे क्या करेंगे ? भूलोक में जीते-जी प्राप्त करने को उनके लिए दमयन्ती है, जिसकी पैरों की धूल को बराबरी में भी तुम्हारी देवाशनाएँ नहीं टिक सकतीं। श्लोक में 'भीम-भू' का अर्थ मोम राजाओं की भूमि-प्रदेश भी किया जा सकता है, जहाँ
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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