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________________ पञ्चमसर्गः भनुवाद-(हे इन्द्र, ) फड़कते हुए ओंठों वा तुम–'वह ( युवा ) कौन है ? यह तुम नहीं कह रहे हो' यह मुझे कहना चाह रहे हो क्या ? ( तो बस ) आधे मार्ग में ही प्रश्न ( क्यों ) नहीं रोक लेते हो ? इस ( प्रश्न ) को ( मुख से ) बाहर निकलने का कष्ट न दो // 28 // टिप्पणी-यहाँ नारद इन्द्र को उत्सुकता बढ़ाने और उसके भीतर ईर्ष्या उत्पन्न करने हेतु अनमिश बना हुआ है / वह युवा का परिचय नहीं दे रहा है / वृत्यनुप्रास है। यत्पथावधिरणुः परमः सा योगिधीरपि न पश्यति यस्मात् / / बालया निजमनःपरमाणो हीदरीशयहरीकृतमेनम् // 29 // अन्वय-यस्मात् परमः अणुः यत्पथावधिः ( अस्ति ) सा योगि-धीः अपि बालया निज-मन:परमाणो ही दरो-शय-हरीकृतम् एनम् न पश्यति // टीका-निर्गमेण न परिश्रमयैनाम्' इति पूर्वश्लोक-कथितस्य कारणमाह-यस्मात् यतः परमः अत्यन्तः अणुः अणुपरिमाणः परमाणुः पृथिव्यादिभूतानां निरवयवम् अन्तिमतत्वमित्यर्थः यस्या योगिघियः पन्थाः मार्गः (10 तत्पु० ) अवधिः सीमा ( कर्मधा० ) अस्तीति शेषः योगिधीः परमाणुपर्यन्तमेव गन्तुं समर्था, ततः परमिति भावः सा योगिनां यतीनाम् मादृशाम् धीः बुद्धिः (10 तत्पु०) अपि बाखया राजकुमार्या दमयन्त्या निजम् स्वम् यत् मनः हृदयम् परमाणुः तस्मिन् ( उमपत्र कर्मषा० ) न्यायसिद्धान्तानुसारेण मनः परमाणुरूपं मवतीति पूर्वमवोचाम, ही लज्जा एव दरी कन्दरा ( कर्मधा० ) तस्यां शेते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) महरिम् असिंह हरि सिंहम् / 'विष्णु सिंहाथ वाजिषु / हरिः' इत्यमरः) सम्पद्यमानं कृतमिति होदरीशयहरोकृतम् एनम् युवानं न पश्यति जानातीत्यर्थः, यतो दमयन्त्या परमाणुरूपस्य स्वमनसः लज्जात्मके अन्तरतमे कोणे असौ युवा संगोप्य स्थापितः, तस्मात् योग-शक्त्याऽपि नाहं तं ज्ञातुं क्षमः लज्जाकारणात् तथा यूनो नाम न प्रकटितमिति मावः // 29 // व्याकरण-यापथा०पथिन् शब्दको समास में अ प्रत्यय होने से वह अकारान्त बना हुआ है। योगी योगः (चित्तवृत्तिनिरोधः) अस्यास्तीति योग+इन् (मतुमर्थ ) / धी:-/ध्ये+विप् ( मावे ) सम्प्रसारण / ही- हो+विप् ( मावे ) / ०दरीशयः ( दर्या शेते ) /शो+अच् ( अधिकरणे ) / ०हरीकृतम् हरि/+चि, दीर्घ +क्त ( कर्मणि ) / ___ अनुवाद-कारण यह है कि योगियों को जिस बुद्धि ( के जाने ) के मार्ग को सीमा परमाणु है, वह तक भी कुमारी द्वारा अपने मन-रूपी पामाणु के भीतर लज्जारूपी गुफा में सोये पड़े सिंह-रूप इस (युवा ) को नहीं देख पा रही है // 29 // टिप्पणी-न्यायसिद्धान्तानुसार यौगिक प्रत्यक्ष परमाणु तक ही सीमित है अर्थात् योगी लोग योग-बल से परमाणु तक का प्रत्यक्ष कर लेते हैं / परमाणु जगत् का सबसे छोटा तत्व माना जाता है। न्यायशास्त्र के 'अयोगपद्याद् शानानां तस्याणुत्वमिहेष्यते' इस कथन के अनुसार मन परमाणु रूप है। इस तरह योगी अन्य लोगों के मन तक को ही जान सको है किन्तु मनको लज्जारूपी अन्तरतम गुफा में सिंहकी तरह छिपकर सोये पड़े दमयन्ती के प्रेमी को वे जानें, तो कैसे जाने। उनको बुद्धि
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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