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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ शतमखी-सौ यचों को कवि ने एक व्यक्ति के रूप में बताया है जिससे इन्द्र पुण्य की मिक्षा मांग रहा है, जिसे उसने दे दिया है / भावार्थ यह हुआ कि क्लेश-साध्य सौ यश करके इन्द्रने जो पुण्य अर्जित किया, उसीसे वह इन्द्र बना / सौ यश करने के बाद ही इन्द्र-पद प्राप्त होता है-ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है। किन्तु इन्द्र द्वारा अपने अमित ऐश्वर्य के प्रति की जाने वाली अवहेलना की बात आश्चर्यजनक है / लोग तो धर्मार्थ (मुफ्त मिली) वस्तु को ही महत्त्व-हीन समझते हैं, क्लेश से प्राप्त वस्तु को नहीं। मल्लिनाथ के शब्दों में 'अत्र क्लेशवाक्येन हेलात्व-समर्थनाद् वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमलङ्कारः' किन्तु क्लेश-लब्ध वस्तु के प्रति अधिक आदर का प्रतिपादक वाक्य हेला-प्रतिपादक वाक्य का समर्थन कैसे कर सकता है ? वह तो अहेला के प्रतिपादक का समर्थन करेगा अर्थात् महेला होनी चाहिए हेला नहीं। हमारे विचार से हेला का कारण न होने पर भी हेला-रूप कार्य बताने में विभावना हो सकती है अथवा अहेला का कारण होते-होते मी अहेलारूप कार्य न होने से विशेषोक्ति भी बन सकती है। इस तरह इन दोनों का संदेह-संकर बना हुआ है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। सम्पदस्तव गिरामपि दूरा यन नाम विनयं विनयन्ते / श्रघाति क इवेह न साक्षादाह चेदनुभवः परमाप्तः // 22 // प्रवन्ध-गिराम् अपि दूराः तव सम्पदः यत् नाम ( ते ) विनयम् न विनयन्ते, इह परमाप्त: साक्षात् अनुभवा चेत् न आह (तहिं ) कः श्रदधाति ? टीका-गिराम् वाचाम् अपि दूराः अगोचरा इत्यर्थः वर्णनातीता इति यावत् तव ते सम्पदा प्रियः यत् नाम निश्चिते यथा स्यात्तथा विनयम् नम्रताम् न विनयन्ते अपनुदन्ति दूरीकुर्वन्तीति पावत् , इह अस्मिन् विषये परमम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा प्राप्तः प्रमाण-भूतः 'अव्यभिचारी'ति यावर ( सुप्सुपेति समासः ) साक्षात् अनुभवः प्रत्यक्षानुमवः चेत् यदि न माह कथयति तहिं क श्रदधाति विश्वसिति न कोऽपोति काकुः / मत्सदृशः कश्चित् यदि व्यक्तिगतरूपेण प्रत्यक्षं नोपलमेत, वहि नासौ कदापि कथनमात्रेण विश्वासं करिष्यति यत् इन्द्रोऽनन्तश्रीसम्पन्नोऽपि विनयवानस्ति, यतः सर्वेऽपि श्रीसम्पन्नाः स्वभावतः अविनयिन एव मवन्तीति भावः // 22 // ज्याकरण-गिराम् गीर्यते ( उच्चार्यते ) इति /गृ+क्विप् ( मावे ) / विनयन्ते 'कती चाशरीरे कर्मणि' (1 / 3 / 37) से आत्मने पद। साक्षात् सह+अक्ष+आत् / माह-V +लट्, त्रु को आह आदेश। भनुवाद-वाचामगोचर-वाणी से परे होती हुई मो तुम्हारी संपदाये जो तुम्हारे विनय नहीं मिटा रही है, इस विषय में यदि सबसे बड़ा प्रमाण प्रत्यक्ष अनुभव न कहे तो कौन विश्वाई करता है ? // 22 // टिप्पणी-इन्द्र की सम्पदायें कितनी ही बहुत क्यों न हों, वे वाचामगोचर हैं, बाको सर्म वाग्गोचर ही है, इस तरह सम्पदाओं के साथ वाग्गोचरत्व का सम्बन्ध होते हुये मी उसका असम्बन बताने से सम्बन्धे असम्बन्धातिशयोक्ति अलंकार है। अपि शब्द के बल से कैमुत्य न्याय से भापी मी है / 'विमयं' 'विनयन्ते' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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