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________________ नैषधीयचरिते ध्यचारयम् / देवाङ्गनाभ्योऽप्यधिकसुन्दर्या दमयन्त्याः कृते ब्रह्मया कः पतिनिर्मित इत्यहं चिन्तितवानिति मावः॥४१॥ . व्याकरण-यौवतैः यौति ( पुरुषेण) मिलतीति यु+शत+ङीप् युवती, युवतीनां समूहः इति युवती+अञ् पुंवद्भाव 'यौवतम्' / युवति शब्द से बनाने पर पुंवद्भाव में योवनम्' बनेगा, देखिए अमरकोश-'गामिणं यौवनं गपः' / अधीतवतीम् अधि+Vs+क्तवत् +डोप् / अनुवाद-यह निश्चय करके कि 'इस ( दमयन्ती) ने स्वर्ग की युवतियों ( अप्सराओं ) के समूह के साथ मी ( बैठकर ) अध्ययन नहीं किया है' मैं सोचता रहता था कि ब्रह्मा के मन में इस (दमयन्ती) के लिए कौन सा पति रह रहा होगा / / 41 // टिप्पणी-यहाँ सौन्दर्य को उपमान-भूत अप्सराओं का तिरस्कार कर दिया गया है, अतः प्रतीप अलंकार है। 'तुरा' 'तिर' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अनुरूपमिमं निरूपयन्नथ सर्वेष्वपि पूर्वपक्षताम् / युवसु व्यपनेतुमक्षमस्त्वयि लिद्धान्तधियं न्यवेशयम् // 42 // अन्वयः-अथ अस्याः अनुरूपम् इमम् निरूपयन् सर्वेषु अपि युवसु पूर्वपक्षताम् व्यपनेतुम् अक्षमः ( सन्नहम् ) त्वयि सिद्धान्तधियम् न्यवेशयम् / / टीका-अथ तदनन्तरम् अस्या दमयन्त्या अनुरूपं योग्यम् इमम् पतिं निरूपयन् विचारयन् अर्थात् ब्रह्महृदयस्थितोऽस्या योग्यः कः पतिः स्यादिति चिन्तयन् सर्वेषु निखिलेषु अपि युवसु तरुणेषु पूर्वपक्षताम् प्राथमिकदृष्टिपाततः योग्यता व्यपनेतुं निराकर्तुम् अक्षमोऽसमर्थः सन् अहं त्वयि नले सिद्धान्तस्य सिद्धान्तपक्षस्य ( 10 तत्पु० ) धियं बुद्धिं विचारमित्यर्थः न्यवेशयम् अस्थापयम् / पूर्व-पूर्वेषु मदृष्टेषु तत्तद्-युवकेषु तत्पतियोग्यताम् पश्यन् सम्प्रति त्वां दृष्ट्वा पूर्वपक्षत्वेन तान् सर्वान् पूर्वान् निरस्य सिद्धान्त-रूपेण त्वमेवास्या योग्यः पतिरिति निरधारयमिति मावः / / 42 / / व्याकरण-अनुरूपम् रूपम् अनुगतम् ति अनु+रूप (प्रादि तत्पु० ) / अक्षमः क्षमते इति क्षन् +अच् ( कर्तरि ) न क्षम इत्य क्षमः ( नञ्त त्पु०)। न्यवेशयम् नि+विश्+ पिच+लङ / अनुवाद-तदनन्तर इस ( दमयन्ती) के योग्य ( पति ) के विषय में सोचता हुआ मैं सभी युवाओं में पूर्वपक्षता ( आपात योग्यता) का निराकरण करने में असमर्थ हुभा (अब ) तुम पर सिद्धान्तपक्ष का विचार स्थापित कर पाया हूँ॥ 42 / / टिप्पणी-यहाँ कवि का न्यायशास्त्र की ओर संकेत है। वहाँ किसी बात पर निर्णय लेने के 'लिए पूर्व-पक्ष रखना होता है, तब उसका खण्डन करके सिद्धान्तपक्ष को स्थापना की जाती है / 'पक्ष प्रतिपक्षाभ्यां निपीतोऽर्थः सिद्धान्तः) पूर्व-पक्ष प्राथमिक दृष्टि-कोष या तर्क ( Prima facie argument ) को कहते हैं। प्रकृत में हंस प्राथमिक दृष्टि से कितने ही युवाओं को दमयन्ती के योग्य समझ रहा होगा, किन्तु जब उसने नल को देखा, तो पूर्वपक्षस्थानीय सभी युवाओं को योग्यता का खण्डन करके सिद्धान्तपक्षस्थानीय नल को ही योग्य सिद्ध करता है, अर्थात् नल
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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