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________________ 296 नैषधीयचरिते यावदहम् यावती अर्हा तावती इति 'यावदवधारणे ( 2 / 118) से अव्ययीभाव / प्रत्यवायः-- प्रति+अव+/अय् घम् ( भावे ) / धुति/धु+क्तिन् ( भावे ) / अनुवाद-इन्द्र ने उचित से भी और अधिक अर्चना द्वारा उस अतिथि ( नारद ) का सब आदर-सत्कार किया। साधु पुरुष का जितना भी हो सके आदर-सत्कार करना दोष-निवारण के लिए हुआ करता है, मचमुच गुण के लिए नहीं // 9 // टिप्पणी-पूज्यों की पूजा करना सन्ध्यावन्दन की तरह अनिवार्य कमों में आता है। यदि न की जाय, तो पाप लगता है। इससे कर्ता में अतिशय या पुण्य होता हो, यह बात नहीं इस सामान्य बात से पूर्वार्धगत इन्द्र द्वारा नारद की पूजा वालो विशेष बात का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। 'कर' 'किल' में ( रलथोरभेदात् ) छेक, 'प्रत्यवाय' 'गुणाय' में पदगत तुक बनने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है नामधेयसमतासखमद्रेरद्विमिन्मुनिमथाद्रियत द्राक / पर्वतोऽपि लभतां कथमचर्चा न द्विजः स विबुधप्रभुलम्मी' // 10 // भन्वय-अथ अद्रिभित् अद्रेः नामधेय-समता-सख्म् मुनिम् द्राक् प्राद्रियत / स द्विजः पर्वतः अपि विबुधप्रभु-लम्भी ( सन् ) कथम् अर्चाम् न लमताम् ? टीका-अथ नारदार्चनानन्तरम् भद्रीन पर्वतान् भिनत्ति वज्रेण तत्पक्षान् छिनत्तीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) इन्द्र इत्यर्थः पूर्व पर्वताः सपक्षा आसन्नित्यधस्तादुक्तमेव, अद्रेः पर्वतस्य नामधेयस्य नाम्नः या समता साम्यम् तस्याः सखायम् मित्रम् पर्यायशब्द-वाच्यमित्यर्थः ( उभयत्र प० तत्पु० ) मुनिम् ऋषि पर्वतम् द्राक शीघ्रम् श्राद्रियत सत्कृतवान्, पुनः इन्द्रेण नारद-सखस्य पर्वतमुनेरपि पूजा सत्कारश्च कृत इत्यर्थः / स द्विजः ब्राह्मणः पर्वतः मुनिः अथ च अदिः अपि विबुधानाम् देवानाम् अथ च पण्डितानाम् ('विबुधः पण्डिते देवे' इत्यमरः) प्रभुम् अधिपम् देवेन्द्र पण्डितराजन्चेत्यर्थः (10 तत्पु० ) लमते प्राप्नोति आश्रयतीति यावत् तथोक्तः ( उपपद तत्पु०) सन् कथम् कस्मात् अर्चाम् पूजा-सत्कारं न लमताम् प्राप्नोतु अपि तु लमतामेवेति काकुः // 10 // व्याकरण-अद्विमित् अद्रि+V भि+क्विप् ( कर्तरि ) / नामधेयम् नाम एवेति नाम+ घेय ( स्वाथे)। सखम् समास में सखिन् को टच / बम्भी-लभते इति / लम् + पिन् मुम् का आगम / प्रचर्चा- अर्च +अ ( माव ) +टाप् / अनुवाद-तत्पश्चात् अद्रिमेदी (इन्द्र ) ने अद्रि के पर्यायवाची मुनि (पर्वत ) का शीघ्र आदरसत्कार किया / वह ब्राह्मण पर्वत ( मुनि; पहाड़) होता हुआ मो विबुधाधिप ( देवेन्द्र पण्डितराज) के पास पहुँचा हुआ क्यों न पूजा-सत्कार प्राप्त करे ? // 10 // हिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने वाक्छल का प्रयोग किया है। विबुधाधिप ( इन्द्र ) ने पर्वत की भी पूजा की। क्यों न करता जब कि वह नामतः पर्वत होता हुआ मी वस्तुतः द्विज (ब्राह्मण) या और उसके घर आ गया या ? इसका दूसरा व्यङ्गय अर्थ यह है कि यदि द्विज शानतः पर्वत, बुद्धि में 1. विबुधाधिप० /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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