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________________ नैषधीयचरिते पञ्चमसर्गः यावदागमयतेऽथ नरेन्द्रान् स स्वयंवरमहाय महीन्द्रः / तावदेव ऋषिरिन्द्रदिदृक्षुर्नारदस्त्रिदशधाम जगाम // 1 // अन्वयः-अथ स महीन्द्रः स्वयंवर-महाय यावत् नरेन्द्रान् आगमयते, तावदेव इन्द्र-दिवृक्षुः नारदः ऋषिः त्रिदश-धाम जगाम / टीका-अथ पुत्र्य आशीर्वचनदानानन्तरम् स प्रसिद्धः महाः पृथिव्याः इन्द्रः स्वामी नृपभीमः इत्यर्थः (10 तत्पु० ) स्वयंधरः स्वयं पतिवरणरूपो विवाहविशेषः एव महः उत्सवः ('मह उद्धव उत्सवः' ) इत्यमरः ( कर्मधा० ) तस्मै यावत् यदा नराखाम् मनुष्याणाम् इन्द्रान् पतीन् नरेशानिति यावत् (10 तत्पु० ) आगमयते प्रतीक्षते स्वयंवरे निमन्त्रितानां नरेशानां प्रतीक्षा करोति स्मेत्यर्थः तावत् एव तदैव इन्द्रं नाकपतिम् दिक्षुः द्रष्टुमिच्छुः ( द्वि० तत्पु० ) नारदः एतन्नामा देवर्षिः त्रिदशानाम् देवानां धाम स्थानम् स्वर्गमित्यर्थः जगाम गतवान् // 1 // न्याकरण-स्वयंवरः स्वयम् ( आत्मना ) वियते पतिरत्रेति स्वयम् +/+अप् ( अधिकरणे ) अथवा स्वयम् वरः वरणम् पत्युरिति अपू (भावे)। प्रागमयते आ+ गम् + पिच+लट् ( यावत् के योग में ), 'आगमः क्षमायाम्' इस वार्तिक से क्षमा कालहरण अर्थात् प्रतीक्षा अर्थ में आत्मने / दिक्षुः द्रष्टुमिच्छतीति /दृश् +सन् +उः, 'न लोका०' (2 / 3 / 69 ) सूत्र के अनुसार उकारप्रत्ययान्त से षष्ठी-निषेध होने पर 'गम्यादि' के भीतर पाठ आने से पीछे 'प्रियाधरपिपासु' को तरह 'इन्द्र' के साथ द्वितीया-समास है। नारदः नराणां समूहो नारम् ( नर+अण् ) ( समूहाथ ), नारस्य दः यति अवखण्डयतीति:/दो+अच् ( कर्तरि ) लोगोंको फाड़ने-कड़ाने वाला, ऋषिः यास्काचार्यानुसार 'ऋषिदर्शनात्' इति /ऋष् +इन् कित् (मंत्रद्रष्टा) / त्रिदशा:-त्रिशब्द यहाँ पूरणार्थक है अर्थात् त्रि=तृतीया दशा= अवस्था येषां तथाभूताः (ब० वी०)। प्राप्पियों की बाल्य, शैशव, यौवन और वार्धक्य ये चार अवस्थायें हुआ करती हैं, किन्तु देवताओं की तीसरी ही दशा ( यौवन) हुआ करती है। वे सदा युवा ही रहते हैं। अनुवाद-तदनन्तर वे भूपति ( मोम ) ज्यों हो (पुत्रो के स्वयंवर-उत्सव हेतु राजाओं की प्रतीक्षा कर रहे थे, त्यों ही इन्द्र को देखने के इच्छुक नारद ऋषि देवलोक (स्वर्ग) को चल दिए // 1 // टिप्पणी-यहाँ 'महा' 'महो' में छेक, 'धाम' 'गाम' में तुक बनने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / इस सर्ग में स्वागता वृत्त है, जिसका लक्षण इस तरह है-'स्वागतेति रनमाद् गुरुयुग्मम्' अर्थात् रगण, नगण, भगण और दो गुरु ( ग्यारह वण ) /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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