________________ चतुर्थसर्गः 275 दो अर्थ होते हैं-एक तो अमावास्या और दूसरा किन्हीं पक्षियों का अव्यक्त रव / सखी अमावास्या अर्थ लेकर कोयल का पक्ष ले रही है जब कि दमयन्ती केवल अव्यक्त-निरर्थक-ध्वनि-रूप में लेती है, जो सुनते हो कानों में विष घोल देती है। दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि कुहू शब्द खरविषाप्यसास्नादिमान् पशुविशेष के अमिधायक गौ शब्द की तरह मार्थक अर्थात् अमावास्या-रूप तिथिविशेष का अभिधायक, नहीं बल्कि घोड़े-खच्चरों की हिनहिनाहट अथवा बैल गाड़ियों की ची-चं की तरह निरर्थक अव्यक्त ध्वनि है, जो विरहियों के कानों को अखरती है। इस तरह यहाँ श्लेष. नक्रोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / हृदय एव तवास्मि स वल्लभस्तदपि किं दमयन्ति ! विषीदसि ? / हृदि परं न बहिः खलु वर्तते सखि ! यतस्तत एव विषद्यते // 108 // अन्वयः- "हे दमयन्ति ! ( यद्यपि ) स वल्लमः तव हृदये एव अस्ति, तदपि ( त्वम् / किम् विषोदसि ?" / "हे सखि ! यतः ( सः ) हृदि परम् वर्तते, बहिः खलु न ( वर्तते ); ततः विषयते / " टीका-'हे दमयन्ति ! ( यद्यपि ) स प्रसिद्धः वल्लभः ते प्रियतमः नलः तव ते हृदि हृदये एव भस्ति वर्तते, तदपि तथापि ( त्वम् ) किम् किमर्थम् विषीदसि खिद्यसे ?" / "हे सखि आलि ! यतः यस्मात् स हृदि हृदये परम् केवलम् वर्तते विद्यते, बहिः बाह्यपदेशे खलु निश्चयेन न वर्तते; ततः तस्मात् कारणात् एव विषयते खिद्यते ?' // 108 // __व्याकरण-घल्लमः-वल्लतीति / वल्ल् ( सह संचरण)+अमच ( कर्तरि ) / विषयते वि+ Vसह+लट ( माववाच्य ) वि उपसग पूर्व होने से स कोष / अनुवाद-“हे दमयन्ती ! ( यद्यपि ) वह ( तुम्हारा ) प्रियतम ( नक) तुम्हारे हृदय के मीतर है, तथााप तुम क्यों मरी जा रही हो?" "हे सखी.! वे हृदय के ही मीतर केवल हैं। निश्चय बाहर नहीं है, इसी लिए मरी जा रही हूँ" // 108 // टिप्पणी-दमयन्ती रातदिन नल का हृदय में चिन्तन-स्मरण करती रहती थी। वह चाहती थी कि वह हृदयस्थ प्रियतम मूर्त रूप में साक्षात् कब उसके साथ रहे, हंसे-खेले / साक्षात् प्रिय-मिलन की देरी उसे साल रही थी। और वह उनके लिए मरी जा रही यो। यहाँ काव्यलिंग है। 'हृद' 'हृदि' और 'विषीद' विषय' में लेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। स्फुटति हारमणौ मदनोष्मणा हृदयमप्यनलंकृतमद्य ते / सखि ! हतास्मि तदा यदि हृद्यपि प्रियतमः स मम व्यवधापितः // 109 // अन्धयः-"(हे भैमि ! ) मदनोष्मणा हार-मणौ स्फुटति ( सति ) अद्य ते हृदयम् अनलंकृतम् ( जातम् )" / " हे सखि ! यदि स मम प्रियतमः हृदि अपि व्यवधापितः, तदा हता अस्मि / " टीका-" ( हे भैमि ! ) मदनस्य कामस्य ऊष्मणा तापेन वरेणेति यावत् ( 10 तत्पु० ) हारे मौक्तिकस्रजि मणिः नायकः हारमध्यमपिरिति यावत् तस्मिन् ( स. तत्पु० / मध्यमणिसहिते हारे इत्यर्थः स्फुटति विदीयमाणे सति अध अस्मिन् दिने ते तव हृदयम् वक्षःस्थलम् अब च स्वान्तम् न मलंकृतम् अनलंकृतम् अलंकाररहितम् (नम्तरपु०) जासमिति शेषः अथ च न नलः यस्मिन् तबामूतम्