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________________ चतुर्थसर्गः व्रज धृतिं त्यज भीतिमहेतुकामयमचण्डमरीचिरुदञ्चति / ज्वलयति स्फुटमातपमुर्मुरैरनुमवं वचसा सखि ! लुम्पसि // 105 // अन्वयः-"। हे भैमि ! ) धृतिम् व्रज, अहेतु काम् भीतिम् त्यज / अयम् अचण्डमरीचिः उदञ्चति " "हे सखि ! ( अयम् ) आतप-मुर्मुरैः स्फुटम् ज्वलयति / (त्वम् ) वचसा अनुमवम् लुम्पसि" टोका-"(हे भैमि ! ) तिम् धैर्यम् ब्रज गृहाणेत्यर्थः, न हेतुर्यस्यां तथाभूताम् ( न क० बी० ) निष्कारणाम् भीतिम् मयम् त्यज जहि / ( अयम् ) अचएडाः न नण्डाः शीता इत्यर्थः मरीचयः किरणाः यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) शीतांशुश्चन्द्र इत्यर्थः उदञ्चति उदयते / शीतांशुरुदयते, न तु चण्डांशुः-सूर्य इत्यर्थः" "हे सखि आलि ! अयम् आतपैः ऊष्ममिः एव मुर्मुरैः तुषानलैः ( कर्मधा० ) ('मुर्मुरस्तु तुषानलः' इति व जयन्ती ) स्फुटम् पत्यक्षं यथा स्यात्तथा ज्वलयति दहति / (त्यम् ) वचसा शब्देन शब्दप्रमाणेनेति यावत् अनुभवम् प्रत्यक्षशानम् लुम्पसि अपलपसि / " प्रत्यक्षानुभवसिद्धं अचण्डमरीचिकृतं तापम् त्वम् आगमेन नान्यथयितुमर्हसि शब्दप्रमाणापेक्षया प्रत्यक्षप्रमाणस्य बलीयस्त्वादिति भावः // 105 // __व्याकरण - धृतिः /+क्तिन् ( भावे ) / भीतिः /मो+क्तिन् (भावे ) / उदति उत् +/अञ्च् + लट् / आतपः आ+Vतप् +घञ् ( मावे ) / अनुवाद-"(हे भैमी ! ) धैर्य रखो, बिना कारण का भय छोड़ो; यह शीतरश्मि चन्द्र उदय हो रहा है।" "हे सखी! यह ताप-रूपी तुषाग्नि से प्रत्यक्ष जला रहा है। तू वचनमात्र से ( मेरा) प्रत्यक्ष अनुभव झुठला रही है // 105 // टिप्पणी-मल्लिनाथ ने 'अत्राचण्डकरे चण्डकर-भ्रान्त्या भ्रान्तिमदलङ्कारः' कहा है, किन्तु भ्रान्ति में काई भो भ्रान्त वस्तु उस वस्तु का कार्य नहीं कर सकतो है, जिसका उस पर भ्रम हो रखा है। रज्जु पर सर्प के भ्रम से रज्जु से विष नहीं चढ़ता, लेकिन यहाँ काल्पनिक चण्डकर से दमयन्ती को वास्तविक तार हो रहा है, इसलिए यह नान्तिमान् का विषय नहीं है। आतप पर मुर्मुरतुषाग्नि-का आरोप होने से रूपक है। तुष धान आदि के भूसे को कहते हैं जिसमें भाग दोखती तो नहीं, किन्तु ताप बना रहता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। अयि ! शपे हृदयाय तवैव यद्यदि विधोर्न रुचेरसि गोचरः / रुचिफलं सखि ! दृश्यत एव यज्ज्वलयति त्वचमुल्ललयत्यसून् // 106 // अन्वय-"आय ( दमयन्ति ) ! यदि त्वम् विधोः रुचेः गोचरः न असि, तत् तव एव हृदयाय शपे।" "हे सखि ! रुचिफलम् दृश्यते एव यत् त्वचम् ज्वलयति, असून् उल्ललयति च / " रोका-"अयि ( दमयन्ति ) ! यदि चेत् त्वम् विधोः चन्द्रमसः रुचेः प्रकाशस्य गोचरः विषयो न प्रसि तत् तहिं ( अहम् ) तव ते एव हृदयाय स्वान्ताय शपे स्वद्धृदयं स्पृशामि, त्वदङ्गसम्बद्ध एष चान्द्र-प्रकाश एवेति विश्वासयितुं ते शपथं गृह्णामोति मावः।" "हे सखि ! रुचेः प्रकाशस्य फलम् परिणामः दृश्यते विलोक्यते एव यत् एषा स्वचम् चर्म ज्वलयति दहति, प्रसून प्राणान्
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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