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________________ चतुर्थसर्गः 211 भनवाद-हे कामदेव, ब्रह्मा फूलों को तुम्हारे बाण बनाकर भी निश्चिन्त नहीं हुआ, (अतएव ) उस ( ब्रह्मा ) ने वे ( बाप ) गिन करके पाँच ही दिए; तथापि उन्होंने (ही) जगत् को खण्डखण्ड कर दिया है, खेद की बात है / / .89 / / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ भी विरोधालकार बताया है, फूलों के बाप्प और वे भी केवल पाँच, और वे ही सारे जगत को जर्जरित कर दें-यह विरोध ही समझिए / पूर्वार्ध में निर्वृति का कारण होते हुए मी निर्वृति रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। उपहर न्त न कस्य सुपर्वणः सुमनसः कति पञ्च सुरद्रुमाः ? / तव तु हीनतया पृथगेकिकां धिगियतापि न तेऽङ्ग विगर्हणा // 90 // अन्धयः-(हे स्मर ! ) पञ्च सुर-द्रुमाः कस्य सुपर्वणः कति सुमनसः न उपहरन्ति ? तव तु हीनतया पृथक् एकिकाम् ( उपहरन्ति ) अङ्ग ? इयता अपि ते न विगर्हणा ( इति ) धिक् (त्वाम् ) / टीका-( हे स्मर, ) पञ्च पञ्चसंख्यकाः सुराणाम् देवानाम् द्रुमाः वृक्षाः पारिजातादयः (50 तत्पु० ) कस्य सुपर्वणः देवस्य ( 'सुपर्वाणः सुमनस त्रिदिवेशा दिवौकसः' इत्यमरः ) कति किय यः असख्या इत्यर्थः सुमनसः पुष्पाणि ( 'स्त्रियः सुमनप्तः पुष्पम्' इत्यमरः ) न ठपहरन्ति उपायनीकुर्वन्ति, वर्ग वृक्षाः सर्वेभ्यो देवेभ्यो यथाभिलषितानि अनेक नि पुष्पाणि प्रयच्छन्तीत्यर्थः, किन्तु तव हीनतया नीचनया, पृथक् प्रत्येकं वृक्षः एकिकाम् एकम् एकम् एव पुष्पम् उपदरन्ति, न पुनर्बहूनि / अङ्ग ! मोपहाम-सम्बोधने, इयता एतावता तिरस्कारेणेति शेषः अपि ते तव न विगहणा लज्जेत्यर्थः इति स्वाम् धिक् / 'अङ्गविदारणम्' इति पाठे तु अजस्य हृदयस्येत्यर्थः विदारणं स्फोटः / देवतरूपां सकाशात् तादृशं महापमानं प्राप्यापि त्वं न लज्जसे इति तव कृते धिक्कार एवेति भावः / / 90 / / / __ व्याकरण-एकिकाम् एका एवेति एका+कन् (स्वार्थः) इत्त्वम् / यह सुमनसः का विशेषण है। प्रश्न उठता है कि उपरोक्त अमरकोष के अनुसार पुष्पवाचक स्त्रीलिङ्ग मुमनस शब्द नित्य बहुवचनान्त होता है तो एकिकाम् ( सुमनसम् ) कैसे बन सकता है ? ठीक है, किन्तु उक्त कोश का कथन प्रायिक ही समझिए, क्योंकि कहीं 2 सुमनस् शब्द एकवचनान्त भी देखा गया है, जैसे-'मुमनाः पुष्प-मालत्योः ( मेदिनीकोश ), 'वेश्या श्मशान-सुमना इव वर्जनीया' (शूद्रक ) इत्यादि / विगहखा वि+ गई / चु०)+युच् , यु को अन्+टाप् / अनुवाद-(हे कामदेव !) पाँच देव-वृक्ष किस देवता को कितने फूल भेंट नहीं कर देते हैं ? किन्तु नीच ( देवता ) होने के कारण प्रत्येक ( वृक्ष ) तुझे एक ही ( फूल ) देता है। अबे ! इतने ( अपमान ) से भी तुझे लज्जा नहीं ( आती ), धिक्कार है तेरे लिए // 6 // टिप्पणी-पञ्चसुरद्रमाः-समुद्र मंथन से अन्य रत्नों के साथ ये पाँच वृक्ष मी निकले थेमन्दार, पारिजात, सन्तान, कल्पवृक्ष ओर हरिचन्दन। इन्हें इन्द्र स्वर्ग ले गया था और अपने नन्दन वन में लगा दिया या / सुनते हैं कि इन से पारिजात को इन्द्र से छीनकर कृष्ण भगवान ने अपनी 1. तेऽङ्ग-विदारणम् /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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