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________________ नैषधीयचरिते बनना चाहिए, इसलिए यहाँ वास्तव में विग्रह कीजिए-क्षतिश्च पाण्डुता चेति क्षति-पाण्डुते वपुषः क्षतिपाण्डुते इति वपुःक्षतिपाण्डुते, आन्ध्यश्च वपुःक्षतिपाण्डुते चेति ०पाण्डुताः अतिशयेन आन्ध्यः / भनुवाद-हे कामदेव अन्य देवताओं का उपासक अन्धापन, अकाल मृत्यु और ( शरीर की) कुरूपता से छुटकारा प्राप्त कर लेता है, (किन्तु ) तेरे उपासक को पूरा अन्धापन, पूरा शरीर-क्षय और पूरी ( शारीरिक ) निष्प्रमता होती है // 85 // टिप्पणी-महाभारत के अनुसार आँक का दूध पड़ने से उपमन्यु को आँखें फूट गई थीं, परन्तु अश्विनी देवताओं की स्तुति-उपासनासे उसका अन्धापन मिट गया था। सावित्री ने यमदेव की स्तुति से पति को अकाल मृत्यु से बचा लिया था। मयूर कवि को कोढ़ हो गया था। सूर्योपासना से उसका कोद और कोढ़ से हुई कुरूपता मिट गई थी। इसके विपरीत काम-भक्त अन्धा-विवेकरहित-हो जाता है, ('कामान्धो नैव पश्यति' ), उसका शरीर सूखकर कोटा बन जाता है और चेहरे का सारा रंग फीका पड़ जाता है। इस तरह अन्य देवों की अपेक्षा कामदेव में अतिशय बताने के कारण व्यतिरेकालंकार है, लेकिन मल्लिनाथ ने यहाँ विषमालंकार बताया है। क्योंकि कामदेव की उपासना लोग करते हैं मलाई के लिए, किन्तु फल बुराई के रूप में मिलता है। शब्दालंकारों में 'भवन्ति' 'भवन्त' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रथम पाद में श्रुति-कटु वर्षों से दुःश्रवस्व दोष झलक रहा है। स्मर ! नृशंसतमस्त्वमतो विधिः सुमनसः कृतवान् मवदायुधम् / यदि धनुदृढमाशुगमायसं तव सृजेत् प्रलयं त्रिजगद् व्रजेत् // 86 // अन्वयः-हे स्मर, स्वम् नृशंसतमः ( असि ), अतः विधिः सुमनसः भवदायुधम् कृतवान् / (विधिः ) यदि तव धनुः दृढम् आशुगम् च आयसम् सुजेत, ( तहिं ) त्रिजगत् प्रलयं व्रजेत् / टोका-(स्वम् ) अतिशयेन नृशंस इति नृशंसतमः हिंस्र: मारक इति यावत् ( 'नृशंसो घातुको हिंस्रः' इत्यमरः) असि, अतः एतस्मात् कारणात् विधिः ब्रह्मा मवतः प्रायुधम् अस्त्रम् (10 तत्पु०) सुमनसः पुष्पाणि ( 'स्त्रियः सुमनप्तः पुष्पम्' इत्यमरः ) कृतवान् रचितवान् करस्य हस्ते कठोरमस्त्रं नोचितमिति भावः। विधिः यदि चेत् तव ते धनुः चापम् दृढम् कठिनम् पाशुगं बाणश्च प्रायसम् लोहमयम् सृजेत् रचयेत्, तहिं त्रयाणां जगतां समाहार इति त्रिजगत् ( समाहार दिगु ) प्रलयं नाशम् ब्रजेत् गच्छेत् तव कठोरधनुषा लौह-बाप्पैश्च लोकत्रयविनाशः स्यादिति मावः // 86 // व्याकरण-नृशंसतमः शंसति हिनस्तीति /शंस् +अच् ( कर्तरि ) शंसः नृपां नराणां शंस इति ( 10 तत्पु० ) अतिशयेन नृशंप्त इति नृशंस+तमप् / विधिः विदधाति ( जगत् ) इति वि+Vधा+किः ( कर्तरि ) / पायसम् अयसः ( लोहस्य ) विकार इति अयस + अण् / प्रलयः +Vली+अच् ( मावे ) / पाशुगः आशु गच्छतीति आशु+ गम् +डः। अनुवाद-हे कामदेव ! तू सब से बड़ा घातक है; तभी तो ब्रह्मा ने फूल तेरे अस्त्र बनाए। (ब्रह्मा ) यदि तेरा धनुष मजबूत और बाप्य लोहे के बनाता, तो तीनों लोक (कमी के) समाप्त हो जाते / / 86 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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