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________________ 246 नैषधीयचरिते यस्मादेष चन्द्रो निरपराधां मां दहति, तस्मात् त्वस्कण्ठं दहन् नायं ब्राह्मणः, अतस्त्वया हन्तव्य एवेति मावः / / 71 / / ज्याकरण-गरुडवत् गरुडस्येवेति गरुड+वत् ('तत्र तस्येव' 5 / 1 / 116) वासना /वास्+ पिच्+युच् ( मावे )+टाप / दाहिका दहतीति /दह्+बुल , इत्वम् / अनुवाद-“हे राहु ! यह ( चन्द्रमा ) गला जला रहा है-इस कारण वास्तव में ब्राह्मण समझकर गरुड़ की तरह तुमने ( इसे ) छोड़ दिया है क्या ? जलाना ( तो ) इसका स्वभाव ( हो) है / मुझ निरपराधिनी पर ( इसकी ) कौन-सी ब्राह्मणता है ? कहो तो सही / / 71 / / टिप्पणी-"जैसे ब्राह्मण ने गरुड़ का गला जला दिया था, वैसे ही ब्राह्मण होने से यह तुम्हारा गला जला रहा है" यह बात नहीं है / जलाना तो इस चन्द्रमा की प्रकृति ही है / गरुड़ से तुलना की जाने के कारण उपमा है। विद्याधर ने अतिशयोक्ति भी मान रखी है, जो हम नहीं समझ पाए / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। यहाँ उद्देश द्विज शब्द से करके प्रतिनिर्देश विप्र शब्द से करने पर उद्देश-प्रतिनिर्देशमाव भङ्ग हो रहा है। 'उदेति सविता ताम्रः, ताम्र एवास्तमेति च' को तरह यहाँ मी 'विप्रता' के स्थान में 'द्विजता' से ही प्रतिनिर्देश होना चाहिए था, इसलिए यहाँ यह साहित्यिक दोष है / गरुडवत्-'महाभारत के अनुसार गरुड़ जब सों की दासता के बन्धन से अपनी माता विनता तथा स्वयं को भी छुड़ाने हेतु सों के लिए अमृत लाने को तय्यार हो बैठे. तो उन्हें बड़ी भूख लगी हुई थी। उन्होंने माता से कहा कि मैं क्या खाऊँ ? माँ ने समुद्र के एक द्वीप के कोने में रहने वाले निषादों ( जीव-हिंसकों ) को मारकर खाने की आशा दे दी, किन्तु साथ ही पुत्र को सचेत कर दिया कि वह किसी ब्राह्मण को न खा बैठे, क्योंकि ब्राह्मण आग होता है मले ही वह कैसा ही क्यों न हो। तदनुसार गरुड़ वहाँ जाकर मुँह फाड़े जब निषादों को निगलने लगे, तो सहसा एक ग्रास मुख के भीतर ऐसा आया कि जिससे उनका गला जलने लगा। उन्हें ब्राह्मण को शंका हो गई और तत्काल उसे उगल दिया। वास्तव में वह एक ऐसा पतित ब्राह्मण था जिसने निषाद कन्या से विवाह कर रखा था। और निषादों के साथ रह रहा था। माघ कवि ने भी इस घटना का उल्लेख कर रखा है--'विप्रं पुरा पतगराडिव निर्जगार'। सकलया कलया किल दंष्ट्रया समवधाय यमाय विनिर्मितः / विरहिणीगणचर्वणसाधनं विधुरतो द्विजराज इति श्रुतः // 2 // अन्वयः-विधुः सकलया कलया दंष्ट्रया समवधाय यमाय विरहि धनम् विनिर्मितःकिल (ब्रह्मपा), अतः दिजराज इति श्रुतिः / टीका-विधुः चन्द्रः सकलया समस्तया कलया षोडशांशेन एव दंष्ट्रया दन्तविशेषेण अत्र कलया, दंष्ट्रयेति जातावेकवचनम्, सकलामिः कलामिः एव दंष्ट्रामिरित्यर्थः समवधाय सम्यक् प्रवधानं कृत्वा सावधानतापूर्वकमितियावत् यमाय अन्तकाय विरहिण्यश्च, विरहिपश्चेति विरहिणः ( एकशेष स०) तेषां गणस्य समूहस्य यत् चर्वणं भक्षपम् तस्य साधनं कारणं ( सर्वत्र प० तत्पु० ) विनिर्मितः रचितः किलेत्युप्रेक्षायाम् (ब्रह्मषेति शेषः ), अतः अस्मात् कारणात् /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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