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________________ चतुर्थसगः 236 ( कर्मधा० ) तमालस्य वृक्षविशेषस्य यत् दलं पत्रं तस्यांकुरः प्ररोहः ( उभयत्र प० तत्पु० ) तम् शशिनः चन्द्रस्य चन्द्रमध्यस्थितस्येत्यर्थः कुरङ्गस्य मृगस्य मुखे आस्ये ( उमयत्र प० तत्पु०) निक्षिप प्रक्षिप, तेन मुखप्रक्षिप्तेनाङ्करेण किमपि ईषत् यथास्यात्तथा तुन्दिलितः तुन्दिलीकृतः प्रवृद्धोदरः इति यावत् सन् ( स मृगः ) अमुम् चन्द्रम् स्थगयति आच्छादयति (चेत् ) तत् तहिं क्षणं क्षणमात्रम् अहं उच्छवसिमि प्राणिमि अर्थात् अस्मत्प्रदत्ततमालाङ्कर-भक्षणेन किमपि प्रवृद्धोदरे चन्द्रमृगेऽहं चन्द्रस्य स्वल्पस्थगनात् शान्तिपूर्वकम् उच्छवसिष्यामि // 56 / / न्याकरण-तुन्दिलित-तुन्दम् अस्यास्तीति तुन्द+इलच् ( मतुवर्थीय ) तुन्दिलः तुन्दिलं करोतीति/तुन्दिल+पिच्+क्त ( नामधातु ) / स्थगयति, उच्छवसिमि-आशंसा में वर्तमान काल / यहाँ समस्त पद 'शशिकुरङ्गमुखे' के अन्तर्गत 'अमुम्' का शशि और तुन्दिलित का मृग से अन्वय ‘पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थकदेशेन' तथा 'सविशेषाणां वृत्तिर्न वृत्तस्य च विशेषष. पोगो न' इन नियमों के विरुद्ध है। भनुवाद-हे सखी! (तुम अपना और मेरा) कर्णाभरण बनाया हुआ तमाल-पत्र का अंकुर चन्द्र के ( भीतर बैठे ) मृग के मुँह में डाल दो; उससे कुछ स्थूल बना ( वह मृग ) उस ( चन्द्र ) को ढक देगा, तो मैं क्षण-मर साँस ले लूंगी।। 56 / / टिप्पणी-खाना खाने से पेट का तन जाना स्वाभाविक है, जिससे तोंद जैसी बन जाती है / मृग की तोंद से अंशत: चन्द्रमा ढक ही जायगा, तो उसकी दाहकता में कमी पड़ जाएगी और वह बेचारी जरा साँस ले सकेगी। विद्याधर ने यहाँ हेतु अलंकार कहा है, क्योंकि ढकने का कारण पेट बढ़मा बताया हुआ है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। असमये मतिरन्मिषति ध्रवं करगतैव गता यदियं कुहूः / पुनरुपैति निरुध्य निवास्यते सखि ! मुखं न विधोः पुनरीक्ष्यते // 57 // अन्वयः-हे सखि, 'असमये मतिः उन्मिषति' ( इति ) ध्रुवम् ; यत् इयम् कुहूः करगता एवं गता / पुनः उपैति ( चेत् ) निरुध्य निवास्यते, विधोः मुखम् पुनः न ईक्ष्यते / ____टीका-हे सखि आलि ! असमये अनवसरे, मतिः बुद्धिः उन्मिपति स्फुरति इति ध्रवं सत्यम् , यत् यस्मात् इयम् एषा कुहः अमावास्या तिथिः करे हस्ते गता आगता, एव सन्निहितैवेति यावत् ( स० तत्पु० ) अथवा करं गता ( द्वि० तत्प० ) गता निःसृता / पुनः मुहुः उपैति आगच्छति बागमिष्यतीत्यर्थः चेत् निरुध्य रुवा निवास्यते निवस्तुं प्रेर्यते स्थापयिष्यते इत्यर्थः, अत्रैबेति शेषः / विधोः चन्द्रस्व मुखम् वदनम् पुनः मुहुः न ईचयते द्रक्ष्यते, नित्यम् अमावास्या-तिथेः सन्निधानात चन्द्रामावे अहं सुखं स्थास्यामीति भावः // 57 // व्याकरण-पैति, निवास्यते, ईच्यते यहाँ भविष्यदर्थ में वर्तमान है ( 'वर्तमान-सामीप्ये वर्तमानवता' 336131) / निवास्यते नि+Vवस्+पिच+लट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-हे सखी! 'बुद्धि असमय में ( ही ) फुरती है' यह सच (बात ) है, क्योंकि यह अमावास्या तिथि हाथ में आई-आई ही चल दी है, फिर आएगी, तो ( उसे ) रोककर ( यहीं) टिका दिया जाएगा, चन्द्रमा का मुख फिर देखने को ( मी ) नहीं मिलेगा / / 57 / /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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