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________________ नैषधीयचरिते श्लोकस्योत्तरार्थगतो 'न' देहली-दीपकन्यायेनात्रापि सम्बध्यते अपितु धनुषी एवेति काकुः / तस्या दमयन्त्या उच्चे उन्नते ( 10 तत्पु० ) नासिके नासाछिद्रे ( कर्मधा० ) छिद्रद्वयोपलक्षितोन्नतनासिके. त्यर्थः स्वयि विषये नालीकानां शराणां विमुक्ति प्रेक्षणं ( 10 तत्पु० ) कामयेते इच्छत इति तथोक्तयोः ( उपपदतत्पु०) ('नालीकः शर-शल्ययोः' इति विश्वः ) रति-पञ्चबाणयोः नलिके नाल्यौ न अपि तु नलिके एवेति काकुः / अर्थात् दमयन्त्या ध्रुवौ समुन्नत-नासिकां च विलोक्य कस्य कामोद्रेको न स्यात् // 28 // न्याकरण-उदितम् उत्+:+क्तः ( कर्तरि ) / विश्वजयाय जेतुम् इति तुम) चतुर्यो / विमुक्ति-कामयोः विमुक्ति+/कम् +प्पः ( कर्तरि ) / अभनुवाद-उस ( दमयन्ती) को दोनों भौहें विश्व-विजय हेतु प्रकट हुए रति और कामदेव के दो धनुष नहीं क्या ? उसको ऊँची-लम्बी नाक के दो छिद्र तुम पर बाण छोड़ना चाहने वाले उन ( रति और पञ्चबाप्प ) को दो नलियाँ नहीं क्या ? टिप्पणी-नलिका, नालीक-नालोक एक विशेष प्रकार का बिलस्तरभर का बाप्प होता हैजो धनुष से न छोड़ा जाकर बाँस की नालो से छोड़ा जाता है। दमयन्ती की ऊँची नाक की तुलना बॉस की दो छिद्रवाली नाली से को गई है, इसी तरह उसकी टेढ़ी भौंहें भी धनुषाकार है। रति और कामदेव दो हैं अतः दो घनुषों और दो नलिकाओं का भौंहों और नासाछिद्रों पर आरोप करने से यहाँ दो रूपकों को संसृष्टि है। कहीं-कहीं श्लोकोत्तरार्ध में 'न' के स्थान में 'नु' पाठ मिलता है, जो उत्प्रेक्षा-वाचक होने से रूपक के स्थान में उत्प्रेक्षा बनाएगा। शब्दालंकारों में 'नलिके' 'नालीक' में छेक और अन्यत्र वृत्यनुमाप्त है। सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्थमृणालजिभुजा / अपि मित्रजुषां सरोरुहां गृहयालुः करलीलया श्रियः // 29 // अन्वयः-हे शूर, जलद्भु जा परम् तव सदृशा सा ( तथा ) कर-लीलया मित्र-जुषाम् भपि सरोरुहाम् श्रियः गृहयालुः अस्तीति शेषः / टीका-हेशर वीर ! जलम् एव दुर्ग कोटः (कर्मधा० ) तस्मिन् तिष्ठन्तीति तथोक्तानि ( उपपद तत्पु० ) यानि मृणालानि बिसानि ( कर्मधा० ) तानि जयत इति तथोक्तौ ( उपपद तत्पु० ) भुजौ बाड़, (कर्मधा० ) यस्याः सथाभूता (ब० वी० ) सा दमयन्ती मृणालादपि सुकुमारौ गौरवौँ च तस्या भुजावित्यर्थः परम् अस्यन्तं थथा स्यात्तथा तव ते सदृशो समाना त्वदनुरूपेत्यर्थः, यतः त्वमपि ( परिखा) जलदुर्गस्यशत्रुजिद्भुजोऽसि / सा करयोः हस्तयोः लीलया विलासेन अथ च करस्य राजस्व. रूपेण दोयमानस्य द्रब्यस्य लीलया क्रियया ( बलिहस्तांशवः कसः' / 'लीला विलास-क्रिययोः' इत्यमरः ) मित्रं सूर्यम् अथ मित्राणि सुहृदः जुषन्ते सेवन्ते इति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) ('मित्रं सुहृदि, मित्रोऽर्कः' इत्यमरः ) अपि सरोरुहां कमलानां श्रियः शोभाः अथ च संपदः गृहयालुः ग्रहीत्री, सा मित्रस्य ( सूर्यस्य ) सहायतया पूर्ण विकासश्रियामपि सरोरुहापां श्रियं स्वकर ( हस्त ) विलासेन हरति, त्वमपि मित्राप्याम् ( सुहृदाम् ) सहायतासंपन्नानामपि शत्रप्पा कर-( बलि )क्रियया बलिग्रहणद्वारेत्यर्थः श्रियो हरसि, अतः युवयोर्द्वयोः शौर्यसाम्यात् सा त्वद्-योग्येति मावः // 26 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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