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________________ 18 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ चन्द्रमा के कलंक का आर्थ अपह्नव करके उसमें गगन-नीलिमा की स्थापना करने से अपह्नति है, किन्तु उसके मूल में 'हृतसार मिव' यह उत्प्रेक्षा है, अतः दोनों का यहाँ अङ्गाङ्गिभाव शंकर है। शब्दालंकारों में 'खनी' 'खनी' में यमकः 'बिलं' 'विलो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्राम है। धृतलान्छनगोमयाश्चन विधुमालेपनपाण्डुरं विधिः / भ्रमयत्युचितं विदर्भजानननीराजनवर्धमानकम् // 26 // अन्वयः-विधिः धृत "चनम् बालेपन-पाण्डुरं विधुम् विदर्भजा'"नकम् भ्रमयति (इति ) उचितम् / टीका-विधिः ब्रह्मा धृतं भृतं लाञ्छनम् कलक एवं गोमयाञ्चनम् ( कमधा०) ( गोमयस्य गोविशः अञ्चनं पूजनं लेप इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) येन तथाभूतम् (ब० वी०) आलेपनेन पिष्टोदकेन पाण्डुरं श्वेतं ( तृ० तत्पु० ) विदर्भजाया दमयन्त्या यत् आननं मुखम् ( 10 तत्पु० ) तस्य नीराजनाय आरात्रिकविधये ( 10 तत्पुं० ) वर्धमानकं शरावम् ( च. तत्सु० ) ( 'शरावो वर्धमानकः' इत्यमरः) भ्रमयति अमणं कार यतीत्युचितम् / ब्रह्मा कलङ्करूपगोमयेन श्वेतकिरणमाला-रूप-पिष्टोदकेन च लिप्तं चन्द्ररूपवर्धमानकं नीराजना-रूपेण दमयन्त्या मुखं परितः भ्रमयतीत्यर्थः / दृष्टिदोषनिर. सनाय मागल्याय शान्तिकर्मणे च नीराजनं क्रियते इति हि लोकाचारः // 26 // ___ व्याकरण-लान्छनम् लान्छ+ ल्युट् (भावे ) / अञ्चनम् अञ्च् + ल्युट ( मावे ) / मालेपनम् आलिप्यतेऽनेनेति आ+/लिप् + ल्युट ( करणे ) / पाण्डुरम् पाण्डुः पाण्डुवर्षोऽस्यास्तीति पाण्डु+रः ( मत्वथें) नीराजनम्-अमरकोष के टीकाकार क्षीरस्वामी के अनुसार'नीरस्य शान्त्युदकस्याजनं क्षेपोऽत्रेति नीराजनम् , मन्त्रोक्त्या वाहनायुधादेनिःशेषण राजनं वात्र'। हम द्वितोय व्युत्पत्ति को ही ठीक समझते हैं। तदनुसार निर् + राज+णिच् + ल्युट ( भावे ) / अनुवाद ब्रह्मा कलंक-रूप गोबर से शोभित, तथा ( कान्ति-रूप ) पिष्टोदक ('पोठे ) से दिए 'अईपण' से श्वेत बने चन्द्रमा के रूप में दमयन्ती के मुख को नीराजना हेतु थाल घुमा रहा है // 26 // टिप्पणी-विवाह, उपनयन, युद्धार्थ प्रयाण आदि मांगलिक कार्यों में नीराजन की प्रथा सर्वत्र प्रचलित है। पहाड़ी भाषा में इसे 'आतों' कहते हैं, जो 'आरात्रिक' का अपभ्रंश है। भगवान की नीराजना को 'आरती' कहते हैं। इस सम्बन्ध में प्रथम सर्ग के श्लो. 10 को टिप्पणी भी देखिए। यहाँ गोल होने से चन्द्रमा थाल उसका काला चिह्न गोबर-लेप एवं श्वेत प्रकाश 'रिष्टोदक का अईपण' बने / चन्द्रमा की लंबो किरण लंबी दोपिकायें (बत्तो) बनीं जिसे बताना कवि छोड़ गया है। दमयन्ती के मुख पर कहीं किसी की नज़र न लग जाय-इस हेतु ब्रह्मा उसका नोराजन कर रहा है। इस तरह यहाँ सर्वाङ्गीण आरोपों से साग-रूपक बना। शब्दालंकारों में विधु' 'विधिः' तयाँ 'मान' 'जन' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सुषमाविषये परीक्षणे निखिलं पद्मममाजि तन्मुखात् / अधुनापि न मङ्गलक्षणं सलिलोन्मज्जनमुज्झति स्फुटम् // 27 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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