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________________ 14 नैषधीयचरिते अनुवाद-उसके केश-कलाप की उकृष्टता क्या बखा। जिसे वह विदुषी ( दमयन्ती ) शिरपर रख रही है / पशु दारा मी पीछे किये हुए चाँवर से उसकी तुलना कौन चाहे ? / / 20 / / / टिप्पणी-साधारणत: नायिका के बालों की तुलना चाँवर से की जाती है, किन्तु यहाँ कवि ने वालों को उपमानभूत चाँवर से मी उत्कृष्ट बना दिया है, इसलिए व्यतिरेकालंकार है। उत्कृष्टता का कारण पशु द्वारा अपुरस्कृतत्व बताने से काव्यलिङ्ग और 'पशुनापि' में अपि शब्द द्वारा 'अन्यों की तो बात ही क्या' इस अर्थ की आपत्ति से अर्थापत्ति भी है। शब्दालंकारों में 'कुर' 'करा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्वदृशोर्जनयन्ति सान्त्वनां खुरकण्डूयनकैतवान्मृगाः / जितयोरुदयत्प्रमीलयोस्तदखर्वेक्षणशोमया मयात् // 21 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) मृगाः तदखवंक्षण-शोमया जितयोः ( अतएव ) भयात् उदयत्प्रमीलयोः स्वदृशोः खुर-कण्डूयन-कैतवात् सान्त्वनां जनयन्ति / टीका-(हे राजन् ! ) मृगा हरिणाः तस्या दमयन्त्या अखवें न खवें हस्वे दी आयते इति यावत् ये ईक्षणे नयने ( कर्मधा० ) तयोः शोभया सौन्दर्येण जितयोः पराभूतयोः अतएव भयात् मोते: उदयन्ती उत्पद्यमाना प्रमीला निमीला निमीलनमित्यर्थ ( कर्मधा० ) ययोस्तथाभूतयोः (ब० वी०) स्वस्या आत्मनः दृशोः (10 तत्पु० ) खुरेण शफेन यत् कण्डूयनं घर्षणं खर्जनमिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) तस्य कैतवात् छलात् (प० तत्पु० ) सान्त्वनाम् आश्वासनां जनयन्ति कुर्वन्ति / अन्योऽपि कश्चित् पराजयं प्राप्य भीतं लज्जया निमीलिताक्षं च पुरुषं कर-स्पर्शादिना सान्त्वयति तद्भयं च निवारयति / / 21 / / व्याकरण-उदयत् उत् ++शतृ / प्रमीला प्र+/भील् +अ+टाप् / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति/क्ष+ल्युट ( करणे ) / हक्-दृश्यतेऽनयेति /दृश्+क्विप् ( करणे ) / शोभा/शुम +अ+टाप् / कण्डूयनम् कण्डू+यक्+ण्युट ( मावे ) / अनुवाद-(हे राजन् !) मृग उस ( दमयन्ती ) के विशाल नयनों की शोमा से हार खाये हुए, ( अतएव ) डर के मारे बन्द हो रहे अपने नयनों को खुर द्वारा खुजलाने के बहाने सान्त्वना देते रहते हैं।। 21 // टिप्पणी-मृगों का खुर से आँख खुजलाना स्वाभाविक धर्म है किन्तु कवि उसे व्याज-मात्र बताता है / वास्तव में वे अपनी आँखों को-जो प्रतियोगिता में दमयन्ती की आँखों से हार खाकर भय से सकुचा रही हैं-सहलाते हुए आश्वासन दे रहे हैं / यहाँ प्रस्तुत मृग और आँखों में अप्रस्तुत हार खाये और आश्वासन दे रहे मनुष्य का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है जिसके साथ अपहुति का अङ्गाङ्गिभाव संकर है, किन्तु नारायण ने लुप्तोत्प्रेक्षा मानी है। यहाँ अलंकार से व्यतिरेकालंकार की यह ध्वनि निकलती है कि दमयन्ती की आँखें मृग की आँखों से उत्कृष्ट हैं / अपि लोकयुगं दशावपि श्रुतदृष्टा रमणीगुणा अपि / श्रुतिगामितया दमस्वसुर्व्यतिमाते सुतरां धरापते ! // 22 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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