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________________ 135 तृतीयसर्गः . अन्वयः-ईदृश-बद्ध-मुष्टेः तव आर्त-मुदे स्व-जीवम् अपि ददद्भयः त्रपा न, यत् मदीयान् असून मह्यम् आदित्सोः तव कौति-धौत: धर्मः करात् भ्रश्यति।। ___टीका-ईदृशश्चासौ बद्धमुष्टिश्च ( कर्मधा० ) बद्धा मुष्टिः येन तथामूनः (ब० वी०) कृष्णः तस्व तव हंसस्थ आतोनी दुःखापन्नानां मुदे हर्षाय (10 तत्पु० ) स्वस्य भारमनः जीवं प्राणान् (10 तत्पु०) ददद्भयः वितरयः जीमूतवाहनादिभ्यः त्रपा लज्जा न। शिवि-दधीचि जीमूतवाहनादिमहापुरुषः परमाणार्थ स्वप्राणाः समर्पिताः, मत्प्राणान् अत्रावमाणेन त्वया तेभ्यो लज्जितम्यमिति मावः। यत् यस्मात् मदीयान् मामकान् असून् प्रायान् मह्यं मे अदित्सोः न दातुमिच्छोः तव कोा यशसा धोतो धवलः (त० तत्पु० ) धर्मः करात् हस्तात् भ्रश्यति च्यवते। महात्मानो स्व-प्राणान् परार्थ ददति, त्वं तु मदीयान् एव प्राणान् नल-रूपान् न दित्तसि, किं पुनः स्व-प्राणान् / परकीयवम्वदाने यशोऽपि गलति, धर्मोऽपि गलति, तस्मात्तथा कुरु यथा ते यशोऽपि स्यात, धर्मश्चापि स्यादिति भावः / / 85 / / व्याकरण-आत आ+/ऋ+क्तः ( कर्तरि ) मुदे मुद् +विप् ( भावे ) / अपात्र + दित्सुः दातुमिच्छुरिति दा+सन्+उः 'असून' में 'न लोका.' 3366 से षष्ठो निषेध / धौत Vधाव+क्तः ऊठ वृद्धि / __ अनुवाद-तुम ऐसे मक्खी चूस हो कि दुख में पड़े हुए लोगों के सुख हेतु अपने प्राणों तक को दे देने वालों ( जीमूतवाहन आदि ) से लाज नहीं खाते। तभी तो मेरे (ही) प्राण मुझे न देना चाहते हुये तुम्हारा यशोधवल धर्म हाथ से जा रहा है // 85 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने परोपकार हेतु निज प्राणों तक की आहुति देने वाले जिन महात्माओं की और संकेत किया है, वे ये हैं कर्णस्त्वर शिविर्मासं जीवं जीमूतवाहनः / ददौ दधीचिरस्थीनि किमदेयं महात्मनाम् // यहाँ नल को दमयन्ती ने अपना प्राण कहा है। इसलिये नल और दमयन्ती के प्राप्षों के मिन्नभिन्न होते हुये भो यहाँ उनका अमेदाध्यवसाय हो रहा है, इस कारण मेदे अभेदातिशयोक्ति है। मुट्ठी बंधी हुई है और हाथ से धर्म गिर रहा है, यह परस्पर-विरुद्ध बात है। बद्ध मुष्टि का कंजस अर्थ करने से विरोध-परिहार हो जाता है, अतः विरोधाभासालंकार है / वृत्यनुपास है। दत्वात्मजीवं त्वयि जीवदेऽपि शुध्यामि जीवाधिकदे तु केन / विधेहि तन्मां त्वदृणान्यशोधुममुद्रदारिद्र यसमुद्रमग्नाम् / / 86 // अन्वयः-जोवदे त्वयि आत्म-जीवं दत्वा अपि शुध्यामि, जीवाधिकदे तु केन शुध्यामि ? तत् स्वद् ऋणानि अशोदधुम् भाम् अमुद्र.. मग्नाम् बिधेहि / टीका-जीवं प्राणान् ददातोति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) त्वयि आत्मनः स्वस्याः जीवं प्राणान् (50 तत्पु०) दत्वा वितीर्य अपि अहं शुध्यामि शुद्धा भवामि ऋणान्मुच्ये इत्यर्थः समस्य स्थाने समस्त दानात् / तु किन्तु जोवात् प्राणेभ्योऽधिकं (पं० वरपु०) ददातोति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) केन
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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