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________________ तृतीयसर्गः व्याकरण--तिरश्वीन तिर्यक् एवेति तिर्यक् +खः स्वाथै ( "विभाषाम्चेरदिस्त्रियाम्' 548) / वाच्यम् वक्तुं योग्यमिति वच् +यत् / पतत्रो-पत्रे = पझावस्य स्त इति पतत्र+इन् (मतुबर्थीय) / तृणीकृत तृष्य +चिः दीर्घ+Vs+क्तः / कर्मणि ) / अनुवाद-शिर को कुछ टेढ़ा किये ( और ) हिलाये, ( एवं ) मुख से चन्द्रमा को तुच्छ समझो हुर राजकुमारी ( दमयन्ती ) थोड़ी देर मन में यह सोचकर कि क्या कहूँ, पक्षो ( हंस) को बोली / 54 / / टिप्पणी-यहाँ त यवत् तुच्छ समझना' 'हम देना' 'टकर लेना' मादि लाक्षणिक प्रयोग दण्डो ने मादृश्यबोधक मान रखें हैं, अतः उपमा है। 'विचि' 'वाच्यं' छेक और अन्यत्र वृत्यनुः मान है। धिक्चापले वत्सिमवत्सलत्वं यत्प्रेरणादुत्तरलीमवन्त्या। समोरसङ्गादिव नीरमाया मया तटस्थस्त्वमुपद्रुतोऽसि // 55 // अन्वयः-(हे हम,) चापले वत्मिमवत्सलत्वम् धिक , यत्प्रेरणात् उत्तरलीभवन्त्यया मया समोरसङ्गात् नर-भङ्गया तटस्थः ( जनः ) इव तटस्थः त्वम् उपद्रुतः अस्ति / कत्वमित्यर्थः तेन वात्मल्यम् वत्सलना सेहवत्त्वमिति यावत् धिक् निन्दनोयमित्यर्यः बालि कात्व-कारपात् चन्नत्ये मम प्रीतिः धिक्कार्यति मात्रः, यस्य उत्सलास्थ प्रेरणात् (प० तरयु० ) उत् अतिशयेन अतरलया तरलया सम्पद्यमानमा मान्या अति कञ्चलोभूपया मया समोरस्य वायोः सङ्गात् ममर्कात (10 तत्पु. ) नोरस्य जलस्य भङ्गया लहरि कया (प. स० ) तटे तीरे तिष्ठनीति तथोक्तः / उपद तर०) जन इव तटस्थ उदासीनो निःसङ्ग इति यावत् स्वम् उपद्रुतः पीडितोऽसि / बाल्य वाचल्य कारणात ग्रहणाय स्वसवालगन्तया भया तुभ्यं कटं दत्तमिति मया न साधु कृतमिति भावः / / 55 / / व्याकरण-चापलम् चपलस्य चपलायाः वा भाव इति चा+प्रण / वरिसमा वत्सस्य वत्साया वा भात वत्स + दमानच् / बरसजस्वम्-बरसे वत्सा वा कामः ( अभिलाषः ) यस्यास्तोति वत्स+ लच् ( मतुचर्याय ) वत्सलः तस्य भाव इति वत्सल+स। उत्तरलोमवस्या उत् +ताल+ चिः दोर्ष/+शतृ+कोप तृ. एक० / उपद्रुतः उप+VE+क्तः / कर्मणि)। अनुवाद-(हे हस,) बालपन के कारण चलता के प्रति मेरो रुझान को विकार है, जिसको प्रेरणा से अति-वञ्चक बनती हुई मैं तरस्थ (निःसङ्ग ) रहने वाले तुम्हें इस तरह तंग कर बैठो जैसे हवा के झोंके से ( उठो ) जल को लहर तटस्य ( तीर पर स्थित व्यक्ति ) को तंग किया करतो है // 55 // टिप्पणो-यहाँ दमयन्ती को तुलना नोरभङ्गो से तया हंस को तुलना तटस्थ से की गई है, अतः उपमा है / तटस्थ शबद शिछष्ट है। 'वरिस' 'वरस' में छेक 'मीर' 'नीर' में पदान्तगत अन्त्यानुपास ओर अन्यत्र वृश्यनुपास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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