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________________ तृतीयसः बात को हर किसी को नहीं बोला करते हैं। इससे हंस का अभिप्राय यह है कि तुम वयःसन्धि में हो, अपनो कामविषयक जो भी बात हो, विश्वास-पूर्वक तुम दिल खोलकर मुझसे कह सकती हो। किसी को भी पता नहीं चलेगा। यहाँ नि.शङ्क बात कहने का कारण हंस का ब्रह्मा से योग शास्त्र का अध्ययन बताया गया है, इसलिए काव्यलिङ्ग है। शब्दालंकारों में 'नाना' 'नन' तथा '' पर्व में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुस हैं। नलाश्रयेण त्रिदिवोपभोगं तवानवाप्यं लभते वतान्या / कुमुदतीवेन्दुपरिग्रहेण ज्योत्स्नोत्सवं दुर्लममम्बुजिन्याः॥ 45 // अन्वयः-(हे भै मे, ) तव अनवाप्यम् त्रिदिवोपभोगम् अम्बुजिन्या दुर्लभम् ज्योत्स्नोत्सवम् इन्दु-परिग्रहेण कुमुदतो इव नलाश्रयेण अन्यं लभते बत / टीका०-(हे भैमि, ) तव ते न अवाप्यम् प्राप्तुमयोग्यम् (नम् तत्पु० ) त्रिदिवस्य स्वर्गलोकस्य उपभोगम् आनन्दम् (10 तत्पु० ) अम्बुजिन्या कमलिन्या दुर्लभं दुष्प्राप्यं ज्योत्स्नाया: चन्द्रिकाया उत्सवम् चन्द्रिकाजन्यविकासरूपम् आनन्दम् इन्दोः चन्द्रमसः परिग्रहेण अङ्गीकारेण कुमुदती कुमुदिनी इव नलस्य आश्रयेण परिग्रहेण अन्य वद्भिन्ना नायिका लभते प्राप्स्यते बत इति खेदे / यथा कमलिन्या भिन्ना कुमुदिनी ज्योत्स्नानन्दमुपभुङ्क्ते, तथैव त्वद्-भिन्ना काचित् स्त्री नल. माश्रित्य स्वर्गानन्दम् उपमोक्ष्यते इति भावः // 45 // व्याकरण-तव अनवाप्यम् यहाँ तृतीया के स्थान में 'कृत्यानां कर्तरि वा' ( 2 / 3 / 71 ) से विकल्प में षष्ठी। त्रिदिवः-पृषोदरादित्वात् साधुः। अम्बुजिन्या दुर्लभम् खल् प्रत्यय होने से षष्ठी का निषेध और कर्तरि तृतीया / कुमुदती कुमुदान्यस्यां सन्तीति कुमुद् +ड्मतुप् म को व+ डीप / लमते मविष्यदर्थ में लट् [ 'वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवता' 3 / 3 / 131] . अनुवाद-(हे भैमी, ) जिप्त तरह कमलिनी को न मिलने वाला चौदनी का आनन्द, चन्द्रमा को अपनाने से कुमुदिनी को मिला करता है, उसी तरह तुम्हें न मिलने वाला स्वर्गीय आनन्द न को अपनाने से और ही स्त्री पाएगो-यह खेद को बात है // 45 // टिप्पणी-यहाँ भैमी से मिन्न नायिका का कमलिनी से भिन्न कुमुदिनी से सादृश्य बताने से उपमा है / यद्यपि उपमेय और उपमान के धर्म यहाँ मिन्न-भिन्न हैं, तथापि उनका परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो ही रहा है / शब्दालंकार अनुप्रास है। तन्नैषधानूढतया दुरापं शर्म त्वयास्माकृत चाटुजन्म / रसालवन्या मधुपानुविद्धं सौमाग्यमप्राप्तवसन्तयेव // 16 // अन्वयः-तत् अप्राप्त-वसन्तया रसालवन्या मधुपानविद्धम् सौमाग्यम् इव स्वया नैषधानूढवया अस्मत्-कृत-चाटु जन्म शर्म दुरापम् ( अस्ति)। टीका-तत् तस्मात् न प्राप्तो लब्धो वसन्तो ( कर्मधा० ) यया तथाभूतया (ब० बो०) रसालानाम् आम्राणाम् ( 'भाम्रश्चूतो रसालोऽसौ' इत्यमरः ) वन्या वाटिकया (प० तत्पु० ) मधुपैः भ्रमरैः अनुविद्ध जनितमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) सौभाग्यम् आनन्दो मकरन्दास्वाद-झङ्कारादिरूपः
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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